पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२६१

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केसौदास दुख चतु दश प्रभाव २६५ दसहूँ दिसि केसव दामिनि देखि लगी प्रिय कामिनि कंठतटी। जनु पंथहि पाइ पुरंदर के बन पावक की लपटें झपटी २८ शब्दार्थ-भुत्रमंडल मंडित के = संपूर्ण पृथ्वी पर छाकर । दिबि = भाकाश । गटी = समूह की समूह । बात = वायु । संघट = ६क्कर । घोष = गर्जन । न घटीहूँ घटी - धड़ी पर घड़ी बीत जाने पर भी। कंठत टी = कंठतट से, गले से । पंह मार्ग पाकर । भावार्थ-( सखी की उक्ति सखी से ) भूमंडल को छाती हुई, बड़े बड़े बादलों की जो घटा उठी वह आकाश नडल में समूह की समूह छा गई। घन की घटा वायु की टक्कर से शब्द करती हैं। घड़ी पर धड़ो बीतती चली जा रही है, पर बादलों का गर्जन घटता नहीं। दसो दिशाओं में बिजली को चमक देखकर प्रिया प्रिय के गले से जा लगी। मानो मर्ग पाकर इंद्र के वन (नंदन कानन ) में अग्नि की लपटें झपटकर जा लगी हों। श्रीकृष्णजू को भयानकरस यथा--( कवित्त ) (४६२) रोष में रस के बोल विष तें सरस होत, जानै सो प्रबल पित्त दाखें जिन चाखी हैं। दीबे लायक भए ब तुम, आज लगि जाकी जी में आँखें अभिलाषी हैं। सूधे है सुधारिबे कौं पाए सिखवन मोहिं, सुधेहूँ में सूधी बातें मोसोंऊ त भाखी हैं । ऐसे में हौं कैसे जाउँ दुरिहूँ धौं देखौ जाइ, काम की कमान सी चढ़ाई भौंहैं राखी हैं ।२६) शब्दार्थ-रोष = क्रोध, मान । रसः-प्रीति ! सरस-बढ़कर। प्रबल पित्त = पित्त की प्रबलता । दाख% द्राक्षा. मुनक्का । भावार्थ- दूती की उक्ति नासक से ) रोष में प्रेम की बातें तो विष से भी बढ़कर हाती हैं । इसे बही जान सकता है जिसने प्रबल पित्त में मुनक्का खा लिया हो । आज तक आप जिसकी आँखों ( के इशारे ) का मन में अभि- लाप करते थे उसी को अब दुःख देने योग्य तो हो गए । आज आप सीधे बनकर मुझसे उसे सुधारने ( उसका मान छुड़ाने की की शिक्षा देने आए हैं, पर आपको क्या पता नहीं कि वह सीधे में ( प्रसन्न रहने पर) मुझसे २६-कोर-यो । गटी-घटी। धन-घट । घट-घटेहूँ न घोष घटी। वसहूं-ताड़िता तड़पै निरखै उर पै सौ। जनु - सनो पारथ, जनु पारथ । २६-रोष में०-रिस में बिरस । पित्त-जुर । भए ब-भए हो । आज-अब । लगि-लहुँ । सुधारिबे०-सुधार सकै क्यों।