पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२६२

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२६६ रसिकप्रिया भी सीधी बातें नहीं किया करती थी ( टेढ़े में न जाने क्या करेगी ) अतः ऐसे अवसर पर मैं उसके निकट कैसे जाऊँ, यदि आप देखना ही चाहते हों तो छिप- कर क्यों नहीं देख लेते, उसने तो काम के धनुष की तरह भौंहें तान रखी हैं। सूचना-पित्त की प्रबलता में मुनक्का खा लेने से पित्त की प्रति वृद्धि होती है। अथ बीभत्सरस-लक्षण-( दोहा ) (४६३) निंदामय बीभत्सरस, नील बरन बयु तास । केसब देखत सुनतही, तन मन होइ उदास ३० शब्दार्थ-बपु = शरीर । तास = उमका । श्रीराधिकाज को बीभत्सरम, यथा-( कबित्त ) (४६४) माता ही को माँस तोहि लागत है मीठो मुख, पियत पिता को लोहू नेक ना घिनाति है भैयनि के कंठनि को काटत न कसकति, तेरो हियो कैसो है जु कहति सिहाति है। जब जब होति भेंट तब तब मेरी भटू, ऐसी सौहैं दिन उठि खाति न अघाति है। प्रेतिनी पिसाचिनी निसाचरी की जाई है तूं. केसौदास की सौं कहि तेरी कौन जाति है ? ॥३१॥ शब्दार्थ-कहति सिहाति है = कहना लगता है। जाई = उत्पन्न, पुत्री। भावार्थ-( सखी के पूछने पर नायिका बारंबार शपथें करती है, वे शपथें बड़ी बीभत्स हैं, इसी पर सखी कहती है ) तुझे माता का मांस मुह में मीठा लगता है, पिता का रक्त पीने में तुझे कुछ भी घुणा नहीं लगती। भैयों का गला काटने की शपथ खाने में तुझे पीड़ा नहीं होती। तेरा कैसा कठोर हृदय है कि तुझे ऐसा कहना अच्छा लगता है । तुझसे जब जब भेंट होती है तब तब ऐ सखी, तू प्रेतिनी, पिशाचिनी या निशाचरी किसकी पुत्री है, जो ऐसी शपथें खाकर भी प्रिय से मिलने नहीं जाती। तू कौन है, किस जाति की है, कुछ बतला भी। श्रीकृष्णजाको वीभत्सर, यथा- ( कबित्त) (४६५) टूटे ठाट घुनघुने धूम धूरि सों जु सने, झींगुर छगोड़ी साँप बीछिन की घात जू । कंटककलित त्रिन वलित तिनके तलपतल ताकों ललचात जू । ३०-मय-भय । नेक-क्यों हूँ । घिनाति-प्रघाति । केसौदास-केसौराइ । भला बिगंध जल,