पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२७५

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षोडश प्रभाव २७६ श्राजु लौ काननहूँ न सुनो सुतौ देखि चलो हम सौति.सहेलो । जानी है जानी मिली मुंहहीं हिय नाहिये भावति गर्बगहेली ।। शब्दार्थ-गाहत = थहाते थहाते । सयान = चतुराई । दहेली = ( सं. दिग्ध) ठिठुरी हुई । गर्बगहेली = गर्वीली। भावार्थ-( सखी की उक्ति नायिका से ) ( तू तो मुझे ही चराना चाहती है ) अरी, जिनकी बुद्धि का शरीर चतुराई के समुद्र में डुबकी मारते- मारते ठिठुर गया है, उन्हीं से तू प्रेम की पहेली बुझाने चली है । तेरी इस बात पर मुझे हँसी भी आती है और दुःख भी होता है। आज तक जो बात कान से नहीं सुनी वही देखने में आई कि सौत भी सखी होती है। मैंने तुझे भली भांति जान लिया तू केवल मुह से ही ( नायक से ) मिली है ( बातों से ही प्रेम प्रकट करती है )। ऐ गर्वीली, तुझे हदय में वह नहीं भाता । सूचना-(१) यहाँ मुंह से प्रेम प्रकट करना और हृदय से कपट दिखाना ही नीरस दोष है । (२) सरदार ने 'कपट करै लपटाय तन' को भी इसी में दिखाने के लिए 'मिली' का अर्थ “भेंटना' माना है और 'दंपती' की पूर्ति के लिए नायक की भी उपस्थिति मानकर दोनो का वहाँ उपस्थित होना कहा हैं। अथ विरस-लक्षण-( दोहा ) (५२०) जहीं सोक महिं भोग को, बरनत है कबि कोइ । केसवदास हुलास सों, तहीं विरस रस होइ ।६। भावार्थ-ज्यों ही कोई कवि शोक में भोग-विलास का वर्णन उल्लास के साथ करने लगता है, त्यों ही विरस दोष हो जाता है । उदाहरण-( कवित्त) (५२१) केसौदास न्हान दान खान पान भूल्यो ध्यान, गयो ज्ञान भयो प्रान पीठि की सी पीठि है। छाँड़हु रसिक लाल यह जक वह बाल, देखतहीं सब सुख तुमहीं उबीठि है। ऐसी सों बसीठी सीठी चीठी अति डोठो सुने, मीठी मीठी बातनि जू नीकेहू में नीठि है । ईठनि सों टूटी ईठी ताके सोक की अँगीठी, उठी जाके उर में सु कैसे हँसि डीठि है ।७। ५–के जिनकी मति-काज न कीरति । जनावति-जगावति । हूं-हो । ६--जहाँ-जहाँ । बरनत०-बरनि कहै । तहों तहहि, तहहीं। बिरस-बोरस । ७--ध्यान-पान । बात-बान । सों बसीठी-सोच सीठो । हेसि हरि । जु-में।