पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२७६

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२८० रसिकप्रिया शब्दार्थ-पीठि%=( पृष्ठ ) पीठ । पीठि% (पृष्ठ) पीढ़ा, प्रासन । भयो प्रान०%=प्राण पीठ का पासन सा हो गया है, पीठ पीछे पड़ा है, निकल सा गया है । रसिक लाल =हे कृष्ण । जक = धुन, रट। बाल = नायिका । उबीठिहै = मन से उतर जायगा । बसीठी = दूतत्व । सीठी-फीकी,निरर्थक । डीठी = जान पड़ती हैं । नीकेहू = भली-चंगी रहने पर भी । नीठि = कठिनाई से । ईठ = इष्ट, मित्र । टूटी-फटी फटी, बेमन की उदास । ईठी = प्रेम । डीठिहै-देखेगी। भावार्थ-(दूती का वचन नायक से ) हे रसिक लाल, ( आप जो मुझ से बार बार उसके पास जाने को कहते हैं, थोड़ा उसकी दशा पर तो ध्यान दीजिए) उसने स्नान, दान, खान, पान सब भुला रखा है । न तो ध्यान करती है और न उसे ज्ञान ही रह गया है । प्राण तो उसके निकल से गए हैं, पीठ के पीछे पड़े हैं। आप अपनी रट छोड़ दीजिए। वह नायिका तो मुझे देखते ही सब सुखों की तो बात ही क्या स्वयम् तुमको भी मन से उतार देगी । ऐसी के लिए दूतत्व करने जाना ठीक नहीं जान पड़ता। रही चिट्ठी, यह तो मुझे अत्यंत निरर्थक जान पड़ती है। जो भली-चंगी रहने पर मीठी मीठी बातों को बड़ी कठिनाई से सुनती थी ( वह इस दशा में चिट्ठी-पत्री क्या देखेगी या सुनेगी) । सखी-सहेलियों से तो वह फटी फटी सी रहती है । उसको तो हृदय में उठी हुई (प्रज्वलित ) शोक की अंगीठी कुछ करने ही नहीं देती, वह भला हँसकर बोलेगी भी तो कैसे ? सूचना-यहाँ नायिका के शोक में श्रीकृष्ण के भोगविलास का वर्णन घुस पड़ा है, अतः विरस है। अथ दुःसंधान-लक्षण-( दोहा ) (५२२) एक होइ अनुकूल जहँ, दूजो है प्रतिकूल । केसव दुस्संधान रस, सोभित तहाँ समूल I उदाहरण-( सवैया ) (५२३) 'दै दधि' 'दीनो उधार हो केसव' 'दान कहा जब मोल लै खैहैं।' 'दीने बिना' 'तौ गई जु गईन गई न गई घर ही फिरि जैहैं।' 'गो हित बैर कियो' 'कब हो हित बैर कियें बरु नीकी है रैहैं।' 'बैर के गोरस बैंचहुगी' 'अहो बेच्यो न बेच्यो तौ ढारि न दैहैं ।।' शब्दार्थ -दान = कर । गो गया, मिट गया। हित = प्रेम । गोरस = दूध, दही। भाथार्थ-(नायक और नायिका का संवाद है ) ८-जह --जिय जहँ दूजो प्रतिकूल | सोभित--सोहतु । ९-दोनो-दोनी । हो-है । तो-जु । जु-हो । न गई.. तो गई न गई । नीकी-नीके |