पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२८

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( २८ ) व्यभिचारी भाव के नामकथन में केशव ने परंपरागृहीत तैंतीस संचारियों के प्रसंग में दो शब्द ऐसे रखे हैं जिनसे भ्रांति हो सकती है। एक शब्द 'बिबाद' है और दूसरा 'प्राधि' ।- १-गर्व हर्ष आवेग पुनि निदा नोंद-बिबाद । २-उन्माद मरन अवहित्थ है व्यभिचारी जुताधि ।। यदि 'बिबाद' को कोई नया संचारी माना जाए तो 'तर्क' और उसमें कोई भेद नहीं होगा। इसलिए 'नींद-बिबाद' समस्तपद जान पड़ता है । 'नींद- बिबाद' का 'निद्रा का बखेड़ा, निद्रा की बात' अर्थ है । ध्यान देने योग्य है कि दोनों शब्द 'तुकांत' में पाए हैं। ये तुकांत के अनुरोध से प्रयुक्त हैं, इनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। जैसे 'बिबाद' को 'निद्रा के साथ जोड़ लेने से स्थिति ठीक हो जाती है वैसे ही 'जुत प्राधि' को चाहें तो 'अवहित्थ' के साथ जोड़ दे सकते हैं। अन्यथा उस दोहे के प्रथम दल में 'ब्याधि' है उसी से इसे जोड़ लें-'प्राधि व्याधि' को एक मानें । यह 'जुत' शब्द 'प्राधि' को किसी से जोड़ने के लिए ही प्रयुक्त है। उसकी स्वतंत्र सत्ता के द्योतन के लिए प्रयुक्त नहीं जान पड़ता । शारीरिक क्लेश को व्याधि और मानसिक क्लेश को आधि कहते हैं। बाह्य और आभ्यंतर भेद से एक ही क्लेश की द्विधा स्थिति हो जाती है । हाव का लक्षण इन्होंने यह किया है- प्रेम राधिका कृष्न को है तातें सिंगार । ताके भावप्रभाव तें उपजत हावबिचार ॥६।१५ यहाँ 'भावप्रभाव' शब्द विचारणीय है। राधाकृष्ण के प्रेम से शृंगार होता है, उसके भाव के प्रभाव से हाव होता है। 'भाव' का अर्थ या तो 'स्थिति' माने अथवा 'मनोविकार' मानें । नाटय शास्त्र में 'हाव' दूसरे ढंग से माना गया है । हिंदी में प्रालंबनगत 'अलंकार' को हाव कहते हैं । नाट्यशास्त्र में कहा गया है कि सामान्याभिनय तीन प्रकार से होता है-वारणी से, अंग से और सत्त्व से । सत्त्व देहात्मक होता हैं । सत्त्व से भाव और भाव से हाव, हाव से हेला होती है- देहात्मकं भवेत् सत्त्वं सत्त्वात् भावः समुत्थितः । भावात् समुत्थितो हावो हावाद्धेला समुत्थिता ॥२४/७ वहीं नाट्य रसाश्रय अलंकारों का उल्लेख भी है। मुख और शरीर में यौवन के समय होनेवाले स्त्रियों के शारीरिक विकार या चेष्टा का नाम अलंकार है- अलंकारास्तु नाटय या नाटघरसाश्रयाः । यौवने ह्यधिकाः स्त्रीणां विकारा वक्त्रगात्रजाः ॥२४॥४