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पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/३

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प्रस्तावना प्राचार्य केशवदास केशवदास का प्राचीन काल में काव्यजगत् में क्या माहात्म्य था इसकी कल्पना आज नहीं की जा सकती। इस युग में भी उनका जैसा मान पहले था वैसा अब नहीं रहा। केशव को अपदस्थ करने में मलिक मुहम्मद जायसी हेतु हुए । मध्यकाल में केशव और विहारी का काव्य-प्रवाह में जैसा मान था वैसा जायसी और कबीर का नहीं। कबीर का नाम तो प्रवाह में सुना भी जाता था, पर जायसी का कोई नामलेवा तक न था। भारतेंदु-युग के अंत में उनकी पदमावत चंद्रप्रभा प्रेस से छपी थी। महामहोपाध्याय सुधाकर द्विवेदी ने जैसा उसका संस्करण निकलवाया उसका कहना ही क्या। फिर लाला भगवानदीनजी का पदमावत का पूर्वार्ध हिंदी साहित्य-संमेलन से निकला, पंडित गमचंद्रजी शुक्ल की जायसी-ग्रंथावली सामने आई, शेरिफ ने उनकी कृति का संस्कार किया, माताप्रसादजी की वैज्ञानिक प्रणाली से संपादित स्थूलकाय जायसा-ग्रंथावली दिखाई पड़ी और डा. वासुदेवशरण अग्रवाल ने पदमावत पर महाभाष्य ही लिख डाला । केशव की रचना की पढ़ाई पहले सर्वत्र होती थी । धीरे धीरे वे हटाए गए। यह उन केशवदास की स्थिति है जिनकी कृतियों पर प्राचीन युग में सूरति मिश्र ऐसे पंडित और सरदार कवि ऐसे कवि-सरदार ने टीकाएँ लिखी थीं। जायसी पर टीका-टिप्पणी की बात ही पृथक् है, उनकी पदमावत के नागरी में हस्तलेख ही कितने थे । कोई काव्य-संसार में उन्हें पढ़ता होता तब न ! हिंदी में भारी गड्डुलिका-प्रवाह है । केशव के दोषों की चर्चा, उनकी कड़ी आलोचना क्या कर दी गई लोगों ने समझ लिया कि केशव बेकार हैं, हटाओ इन्हें । 'हटाओ' में उनके काव्य की कठिनाई भी हेतु है। जिन शुक्लजी ने केशव की कड़ी आलोचना की उन्होंने उन्हें पढ़ाई में बराबर बनाए रखा। रामचंद्रचंद्रिका हिंदी में संस्कृत-परंपरा के महाकाव्यों के प्रतिनिधि-रूप में उन्हें स्वीकार थी। उस परंपरा के ग्रंथरूप में उसका महत्व उन्हें मान्य था। इधर केशव के संबंध में जितने प्रयत्न हुए उनसे भी उनकी उपेक्षा का परिहार नहीं हुआ । 'केशव की काव्यकला' श्रीकृष्णशंकर शुक्ल ने लिखी, 'केशवदास' स्वर्गीय पं० चंद्रबली पांडे ने प्रस्तुत किया। श्रीहीरालाल दीक्षित ने 'प्राचार्य केशवदास' पर पूरा प्रबंध ही लिख डाला । सर्वश्री किरणचंद्र शर्मा, विजयपाल