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पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/३४

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विरह के अंतर्गत इन्होंने 'भयविभ्रम' का वर्णन भी किया है, जिसका कोई लक्षण नहीं दिया है। स्वरूप से स्थिति यह जान पड़ती है कि जहाँ वियोग में संयोग की सुखद वस्तुएँ दुःखदायिनी हो जाती हैं उसके वर्णन को ये 'भयविभ्रम' कहना चाहते हैं। सरदार ने ऐसे दुःखदों की खतियौनी सात खातों में की है- नींद सेज सुमनो समा संगित सालि सुगंध । सात बियोगिन कों करत महा बिरह ते अंध ।। केशव ने केवल 'निद्रा' के उदाहरण दिए हैं। इसके अतिरिक्त 'पत्री' के उदाहरण भी इसी के साथ दिए गए हैं। द्वादश प्रभाव में सखी-वर्णन शृंगारतिलक के अनुसार ही है। इसमें कुछ नाम केशव ने और बढ़ाए हैं। इन्हें सखी कहा जाए या दूती । 'दास' दूती के अंतर्गत ही इनमें से बहुतों को रखते हैं । सखी और दूती में स्वरूपभेद उनके स्वातंत्र्य और पारतंत्र्य के ही आधार पर हैं। सखी में फिर भी कुछ स्वाधीनता होती है, उसकी प्रतिष्ठा विशेष होती है । हिंदी में परंपरया सखी और दूती के कर्मों का कुछ विभाजन भी कर दिया गया है । विरहनिवेदन दूती का कार्य हो गया है । त्रयोदश प्रभाव में सखी के जो कर्म बताए गए हैं उनमें वह क्रुद्ध भी हो सकती हैं ( देखिए १३।१ )। पर दूती की क्या मजाल कि वह रोष कर सके । ऐसे ही संदेश आदि भी दूती के कर्म हैं। सखी की स्थिति कुछ अधिक परिष्कृत है। उसका सुसंस्कृत होना आवश्यक है। इसलिए जिनको सखी कहा गया है वे सब सखी के योग्य नहीं जान पड़तीं। चतुर्दश प्रभाव में अन्य रसों का विवेचन है। हास्यरस के परिहास भेद की चर्चा पहले की जा चुकी है। रसों के वर्णन का उल्लेख भी केशव ने किया है जो शृंगारतिलक में नहीं है । देवता का उल्लेख फिर भी नहीं है । हास्यरस में वर्ण का भी उल्लेख छूट गया है। करुणरस का लक्षण शृंगार तिलक से भिन्न है। वहां लक्षण है- 'शोकात्मा करणो ज्ञेयः प्रियमृत्युधनक्षयात्' यहाँ है- 'प्रिय के बिप्रिय करन ते प्रानि करुनरस होत' केशव ने अन्य रसों को भी राधाकृष्ण से ही संबद्ध रखना चाहा है । इसी से इस प्रकार का लक्षण उन्हें करना पड़ा। ऐसा उदाहरणों से स्पष्ट है । अन्य रसों की भी यही स्थिति है । इसका परिणाम यह हुआ है कि रसों का स्वरूप पूरा स्पष्ट नहीं हो सका है । उनके स्थायी भाव शृंगार के संचारी