( ३५ ) होकर आए हैं। समरस या शांतरस के उदाहरणों में केवल तीसरा ( १४।४० ) ठीक है। पंचदश प्रभाव में वृत्तियों का वर्णन है। इसमें सात्वती या सात्त्वकी वृत्ति का लक्षण शृंगारतिलक से कुछ भिन्न है। इसमें रौद्र के स्थान पर शृंगार है । वैसा ही पाठ प्राचीन पोथियों में है । अन्यत्र 'अद्भुत बीर सिंगार रस' के स्थान पर 'अद्भुत रुद्र रु बीर रस' पाठ भी मिलता है जो उससे ठीक मिल जाता है । अंतिम षोडश प्रभाव में 'अनरस-वर्णन' है । इसमें 'नीरस लक्षण' कुछ भिन्न रखा गया है। शृंगारतिलक में 'नीरस' का लक्षण ( काव्यमाला में मुद्रित संस्करण में) दो बार कथित है । पहले के संबंध में टिप्पणी है कि कुछ पुस्तकों में यह नहीं मिलता। केशव ने दूसरे ( ३१५१ ) से कुछ मिलता- जुलता लक्षण (१६।४) किया है । अंत में नित्य रसविरोध का विचार किया है (१६।१२) और रसोत्पत्ति भी (१६।१३) नाट्यशास्त्र के अनुसार दे दी है। भाषा केशवदास की भाषा बुंदेली समझी जाती है, यह भ्रम है । उन्होंने अपने ग्रंथ साहित्य को सामान्य काव्यभाषा व्रजी में लिखे है। जो कवि जिस प्रदेश का होता है उस प्रदेश के कुछ शब्द और प्रयोग आ ही जाते हैं । टकसाली व्रजभाषा लिखना उन्हीं के लिए संभव है जो व्रज प्रांत के हैं । व्रजी काव्यभाषा के रूप में संस्कृत की भांति स्वतंत्र रूप प्राप्त कर चुकी थी । इस- लिए जो लोक व्रजप्रदेश के होते थे वे ही उसमें बज के प्रांतीय शब्दों का व्यवहार किया करते थे। इसलिए उनकी व्रजभाषा कहीं कहीं और लोगों के लिए दुरूह हो जाती थी। कल की बात है कि सत्यनारायण कविरत्न ने जिस व्रजी का व्यवहार किया उसमें व्रजमंडल के बहुतेरे शब्दों का प्रयोग कर दिया । घनानंद, ग्वाल ब्रजमंडल के कुछ ऐसे शब्दों का व्यवहार करते हैं जो दूसरों के द्वारा प्रयुक्त नहीं होते। ठीक उसी प्रकार अवध के कवि अवधी शब्दों और प्रयोगों का व्यवहार करते हैं, मिथिला के मैथिली के शब्दों का, पंजाब के पंजाबी शब्दों का, राजस्थान के राजस्थानी शब्दों का, गुजरात के गुजराती शब्दों का आदि आदि । यही स्थिति केशवदास की भी थी। उन्होंने व्रजी में बुंदेली शब्दों और प्रयोगों का व्यवहार आवश्यकता पड़ने पर निस्संकोच और प्रकाम किया है। इसलिए उनकी भापा बुंदेलीरंजित साहित्यिक व्रजी है । बुंदेली भाषाविज्ञान की दृष्टि से व्रजी के ही अंतर्गत पाती है। इसीलिए बुंदेली के कुछ प्रयोग दूर तक फैल गए । भविष्यत्कालबोधक 'पालवी', 'करबी'
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