पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/४१

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( x ) निर्णय किया गया है। रसिकप्रिया के अनेक हस्तलेखों को छानकर मिलावट को पृथक् करने का प्रामाणिक कार्य पृथक् है । इस प्रकार का कुछ प्रयास मैंने 'केशवग्रंथावली' के संपादन में किया है । यहाँ शुद्ध अनुसंधान की ही दृष्टि न रखकर साहित्यपरंपरा, शास्त्रपरंपरा का भी कुछ विचार रखा गया है । इससे दोनों स्थानों पर पाठ का भी भेद है और मूल में स्वीकृत छंदों का भी। पर ऐसा क्वाचित्क है। किसी ग्रंथ का मूल पाठ टीका-टिप्पणी करते समय कहीं अधिक स्पष्ट होता है । प्राचीन ग्रंथों के संपादन में, कोरी वैज्ञानिक पद्धति सर्वतोभावेन ठीक नहीं जंचती। वैज्ञानिक पद्धति जड़ यंत्र का सा कार्य है । साहित्यिक विवेचन चेतनतत्त्व है। दोनों के योग से ही मूल सत्ता की पूर्ण अभिव्यक्ति हो सकती है । कोई एक प्रणाली पूर्ण नहीं है। अधिक या अतिरिक्त छंदों के भी पाठांतर रहे हैं तो दे दिए गए हैं । अलंकार-निर्देश में केशव के मत से जो अलंकार बनता है उसका भी यथा- संभव उल्लेख किया गया है । रसिकप्रिया के कुछ छंद कविप्रिया में भी रखे गए हैं। इनकी यथास्थान सूचना दी गई है। कहीं कहीं अनावश्यक विस्तार बचाने के लिए अन्य टीकाकारों के शंका-समाधान का विवरण नहीं दिया गया। इतना ही बता दिया गया है कि यहाँ अनेक शंका-समाधान किए गए हैं। कहीं पाठांतरों के अनुसार यदि कोई प्रकृष्ट अर्थ संभावित हुआ है तो सूचना के अंतर्गत उसका भी उल्लेख किया गया है । कहने का तात्पर्य यह कि अपनी विद्याबुद्धि के अनुसार जो भी अपेक्षित समझा गया सबका संकलन है। संख्या प्रत्येक प्रभाव की पृथक् भी है और आदि से अंत तक क्रमवद्ध भी । अंत में प्रतीकानुक्रम है, प्रारंभ में विषयक्रम । भूमिका में अनेक ज्ञातव्य तथ्य हैं। विभिन्न हस्तलेख 'रसिकप्रिया' और उसकी टीका के जितने हस्तलेखों का उल्लेख हस्तलिखित हिंदी-ग्रंथों के विवरणों में आया है तथा विभिन्न पुस्तकालयों में इनके जितने हस्तलेख सुरक्षित हैं उनका निर्देश नीचे किया जाता है। प्रस्तुत संस्करण के पाठ के लिए मुख्य रूप से दो हस्तलेखों का तथा दो प्रमुख टीकाओं का प्राधार रखा गया है। दोनों हस्तलेख स्वर्गीय बाबू राधाकृष्णदासजी के सुपुत्र श्रीबालकृष्णदासजी उपनाम बल्लीबाबू से प्राप्त हुए। एक हस्तलेख खंडित है, उसमें लिपिकाल का उल्लेख नहीं है । दूसरा पूर्ण है और उसका लिपिकाल सं० १७२२ है। इससे प्राचीन किसी हस्तलेख का पता नहीं चलता। खंडित प्रति कुछ समय बाद का हस्तलेख जान पड़ती है, उसकी शाखा पूर्ण प्रति से