पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रसिकप्रिया सूचना-(१) 'जय' के प्रयोग से यह आशीर्वादात्मक मंगल है। ( २ ) सरदार कवि ने अपनी टीका में इसका अर्थ प्रणव और श्रीकृष्ण पर भी घटाया है । (३) सूरति मिश्र ने 'रसग्राहकचंद्रिका' नाम्नी अपनी टीका में 'मदनकदन' को श्रृंगार में अप्रयुक्त प्रयोग मानकर इसका अर्थ 'धतूरा खानेवाला' किया है । फिर यह शंका उठाकर कि धतूरे के अनेक पर्यायानक शब्दों के होते हुए 'मदन' ही क्यों रखा गया, 'मदन' का अर्थ 'मद नहीं' और 'कदन' का अर्थ सृष्टिसंहारकर्ता रुद्र ग्रहण किया है । इसी प्रकार के अनेक प्रश्नोत्तर हैं। (४) 'जगनायक' का अर्थ 'त्रिदेव' करने में मह देव भी प्राते हैं। महादेव गणेश के पिता हैं। ये उनके भी नायक कहे जाएँ तो अनुचित है, ऐसा नहीं समझना चाहिए-'सुर अनादि जिय जानि।' (२) श्रीकृष्णवंदना- छप्पय ) श्रीबृषभानुकुमारि हेत शृंगाररूप भय। बास हासरस हरे मातुबंधन करुनामय । केसी प्रति अति रौद्र बीर मारो बत्सासुर। भय दावाललदान पियो बीभत्स बकी उर । अति अद्भुत बंचि बिरंचिमति, सांत संततै सोच चित । कहि केसव सेवहु रसिकजन, नवरसमय ब्रजराज नित । २ । शब्दार्थ- श्रीबृपभानुकुनानि = श्रीराधिका। हेत = ( हेतु ) लिए । भय :- ( भए ) हुए। वास हरे= गोपियों के वस्त्र हरण किए । मातृबंधन : कंस के कारागार में माता देवकी का बंधन । केमीकेशी राक्षस । बत्सासुर- एक राक्षस । दावानलपान-एमवार श्रीकृष्णवनाग्नि पी गए थे। बकी- पूतना ( बकासुर की बहन )। उर पियो - स्तनपान किया । बंचिठगकर । बिरंचिमति - ब्रह्मा की बुद्धि । संततै-निरंतर ही । ब्रजराज = श्रीकृष्ण । भावार्थ-जो श्रीकृष्ण श्रीनाधिका के लिए शृंगार रस-रूप हुए, गोपि- काओं के चीरहरण में हारनाम-रूप बने, माता देवकी का कारावास में कष्ट देखकर करुणरस-रूप हुए, केशी के प्रति क्रोध करके रौद्र रस-रूप दिखाई पड़े, वत्सासुर के मारने में बी रन-मय हुए, दावाग्नि का पान करके भयानकरस- युक्त हुए, पूतना का स्तनपान करके वीभत्स रस-मय दिखाई दिए, ब्रह्मा की बुद्धि को छलने में अद्भुत रस युक्त प्रतीत हुए तथा अर्जुन का मोह देखकर चिंतित चित्त हो जाने के कारण शांतरस-भय लक्षित हुए, उन नवरसमय ब्रजराज की सेवा रसिकजन नित्य करें। अलंकार उल्लेख और तृतीय विशेष का संदेह-संकर तथा रत्नावली ( क्रम से रसों का नाम आने के कारण) ।

-संतते-सांत से।