पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/७२

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७२ रसिकप्रिया नगी-कुमारि = पर्वत-कन्या । नरी = मानवी । नरी० - गवार मानवी स्त्रियां उसके सामने क्या हैं ( कुछ नहीं )। ताप हौं कहा हूँ जाउँ = उस पर मैं और क्या हो जाऊँ ( सिवा निछावर होने के )। बिधि = ब्रह्मा । ब्रजलोचन की तारिका = ब्रजवासियों के नेत्रों की पुतली । बृषभान = राधिका के पिता । उक्ति-सखी द्वारा रूपवर्णन । अलंकार-उपमा। सूचना-चंपे के पास भौरों के घूमने का भाव यह है कि जिस प्रकार भौंरा चंपे के चारो ओर मँडराया करता है उसपर बैठ नहीं सकता उसी प्रकार राधिकाजी के लाखों अभिलाष होते रहते हैं । व्याकरण-'अभिलाष' शब्द पुलिंग है । अथ चित्रिणी-लक्षण--- ( दोहा ) (५१) नृत्य गीत कबिता रुचै, अचल चित्त चल दृष्टि । बहिरति रति अति सुरत-जल, मुख सुगंध की सृष्टि ।५। शब्दार्थ-बहिरति = बहिर्रति, बाहरी रति ( प्रालिंगन, चुंबन, स्पर्श, मर्दन, नखदान, रददान, अधरपान ) । रति =प्रेम । सुरत-जल =काम- सलिल, स्मरजल। (५२) बिरल लोम तन मदन-गृह, भावत सकल सुबास । मित्र-चित्र-प्रिय चित्रिनी, जान? केसोदाम ।६। चित्रिणी, यथा -( सवैया ) (५३) बोलिबो, बोलनि को सुनियो, अबलोकनि के अवलोकनि जोते। नाचिबो गाइबो बीन बजाइबो रीमि रिझाइ कों जानति तोते । राग बिरागनि के परिरंभन हास बिलासनि तें रति कोते । तौ मिलती हरि मित्रहि को सखि ऐसे चरित्र जो चित्र में होते।७ शब्दार्थ-अवलोकनि = चितवन । जोते - ( जोवते ) हम देखते । तोते= तुझसे । राग%D प्रेम, अनुराग । बिराग-मान, उदासीनता। परि- रंभन = प्रालिंगन । रति कोते-प्रेम बढ़ाते । भावार्थ-( सखी की उक्ति नायिका से ) हे सखी, स्वयम् बोलना और दूसरों की बोली सुनना, स्वयम् देखना और देखकर दूसरे की चितवन देखना नाचना, गाना, बांसुरी बजाना, रीझना, दूसरों को रिझाना ( जिस प्रकार श्रीकृष्ण का नुको जानकारी हूँ, उसी प्रकार इस चित्र का भी तुझसे जानती सनी ) । (अनुकूल रहने पर ) प्रेमपूर्वक स्वयम् रूठने पर विराग- भरा, उदासीनतायुक्त आलिंगन तथा हास-विलास से प्रेम का संवर्धन भी उसी प्रकार यह करता जिस प्रकार श्रीकृष्ण करते हैं। यदि इस चित्र में ये सब ५-बहिरति-बिहरत । रति -रत । मुख-मधु