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पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/७३

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रसिकप्रिया अलंकार-अन्योक्ति और रूपकातिशयोक्ति । सूचना--सपत्नी के यहाँ से लौटकर आनेवाले नायक पर नायिका रुष्ट हो रही है । यहाँ कदली से अभिप्राय नायिका की जंघाओं से है, बदरी सपत्नी के टीले रोम हैं, चंपकली की स्थली नायिका की नासिका है, मलिन नलिनी मुख है, नाग-लवंग आदि उसके मुख की बास है, छुहारा और दाख अधर- रस ह, ऊँटकटारा सपत्नी के शरीर की तीखी गंध है । अथ हस्तिनी-लक्षण- दोहा ) (५७) थूल अंगुरी चरन मुख, अधर भृकुटि कटि बोल । मदन-सदन, रद कंधरा, मंद चालि चित लोल ।११॥ शब्दार्थ-थल = मोटी । 'थूल' का अन्वय 'अंगुरी' से 'बोल' तक है। रद - दाँत। कंधरा - गर्दन । 'मंद' का अन्वय 'रद कंधरा, चालि' से करें । 'मंद' का अर्थ 'रद' के साथ लघु, 'कंधरा' के साथ 'छोटी', 'चालि' के साथ 'धीमी' । (अथवा 'कंदरा' का अर्थ गुफा या गड्ढा करके 'रदकंदरा' का अर्थ 'विरलदंती' कर लें । तब 'मंद' का अन्वय 'चालि' से ही होगा ।) (५८) स्वेद मदन-जल द्विरद-मद-गंधित भूरे केस । अति तीछन बहु लोम तन, भनि हस्तिनि इभ-भेस ।१२। शब्दार्थ-मदन-जल = कामसलिल । द्विरद = हाथी । इभ = हाथी । हस्तिनी, यथा-( सवैया ) (५६) सब देह भई दुरगंधमई मतिअंध दई सुख पावत कैसे ! कछु साल तें लोम बिसाल से हैं नुतिताड़न केसव बोज अनसे । अलि ज्यों मलिनी नलिनी तजिकै करिनी के कपोलनि मंडित तैसे। छिति छोड़िकै राजिसिरी बस पाप निरैपद राज विराजत जैसे।१५॥ शब्दार्थ-मतिअंध = बुद्धिहीन । साल %3D ( शल्य ) कांटा। बिसाल - बढ़कर। स्रतिताड़न = कर्णकटु । अनसे 3 (अनिष्ट ) बुरे। करिनी : हस्तिनी । छिति = (क्षिति) पृथ्वी । राजिसिरी = राज्यश्री । बस पाप = पाप के कारण । निरै = ( निरय ) नरक । पद = स्थान । भावार्थ-नायिका की उक्ति सखी से ) हे सखी, भ्रमर अपने मन में कमलिनी को मलिन समझकर त्याग देता है और बुद्धिहीन होकर दुर्गंधयुक्त देहवाली, काँटे से भी बढ़कर कष्टप्रद गेमवाली और कर्णकटु एवम् भप्रिय वचन बोलने वाली हस्तिनी के गंडस्थल पर मडराता है। उसका ऐसा करना ११-कटि-कठि; कटु । कंधरा-कंदरा । १२-इभ०-1 -इहि बेस । १३- मा-मई। मई-आई।