पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/८

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(5) नाटकों का आधार लेने से और कथाभाग को छोड़ देने से संवाद के वक्ताओं नाम इन्हें पद्य से पृथक् रखने पड़े हैं। इनमें भी ध्यान देने योग्य संवाद राजनीतिक प्रसंग के ही हैं। कुछ पात्रों का चरित्र भी इन्होंने विशेष रूप में लक्षित कराया है । उत्तरार्ध में लवकुश की उक्तियाँ विशेष मार्मिक बन पड़ी हैं । पर ऐसे प्रसंग इतने बड़े काव्य में थोड़े ही दिखाई देते हैं। शैली देखते हैं तो उसमें भी विविध प्रकार के छंदों के उदाहरण प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति है । प्रबंधकाव्य में धारा चला करती है। इस धारा को बनाए रखने में छंद भी सहायक होते हैं। यही कारण था कि कवि लोग एक सर्ग में प्रायः एक ही छंद का प्रयोग करते थे। केवल अंत में मोड़ की सूचना के लिए दो-चार छंद बदल दिए जाते थे। किंतु रामचंद्रचंद्रिका में छंदों का परिवर्तन इतना शीघ्र और इतने अधिक रूपों में किया गया है कि एकरसता आ ही नहीं पाती। अतः प्रबंधकाव्य के विचार से रामचंद्रचंद्रिका समर्थ रचना नहीं दिखाई देती । कथाक्रम यथावश्यक न होने से वह मुक्तक उक्तियों का संग्रह-ग्रंथ जान पड़ती है। लक्ष्य-ग्रंथों को छोड़कर लक्षण-ग्रंथों की ओर देखते हैं तो वहाँ भी पूर्ण प्रवधानता नहीं दिखाई पड़ती । इन्होंने काव्यकल्पलतावृत्ति, काव्यादर्श आदि के अनुगमन पर 'कविप्रिया' नाम से कविशिक्षा की एक अच्छी पुस्तक प्रस्तुत की। किंतु उसमें भी कोई अपनी सूझ नहीं। उलटे अलंकार ( विशेष ) के निरूपण में उलटी-सीधी बातें भी आ गई हैं। कविप्रिया से यह अवश्य हुआ कि निरीक्षण की शक्ति न रखनेवालों या उससे भागनेवालों के लिए भी काव्यपरंपरा का ज्ञान सुलभ हो गया। कवि केवल पुस्तक पढ़कर ही काव्य- रचना में प्रवृत्त होने लगे, उन्होंने स्वतः निरीक्षण करना छोड़ ही दिया । दक्षिणापथ के वर्णन में उत्तरापथ के वृक्षों की उद्धरणी या उत्तरापथ के वर्णन में दक्षिणापथ के वृक्षों की नामावली अथवा मथुरा में मेवे के पौधे केशव की ही जमाई हुई परिपाटी का परिणाम है । कविप्रिया के ही अंतर्गत पहले नखशिख, शिखनख और बारहमासा थे, पर आगे चलकर ये पृथक् प्रचारित किए गए। यह हो सकता है कि इनका निर्माण कविप्रिया से पहले ही हो गया हो और उसकी रूपरेखा बनाते समय इन सबका या किसी का समावेश किया गया हो। प्रारंभ में इसी से इनका निर्देश पृथक् कृति के रूप में ही किया गया है । नखशिख देवी-देवताओं या अवतारों के रूपवर्णन के लिए और शिखनख नर- नारी के रूपवर्णन के लिए होता है । बारहमासा वियोगवर्णन से संबद्ध है और लोकगीतों के प्रवाह से साहित्य में आया है ।