पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/९

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कुछ करने के दास। (2) 'रसिकप्रिया' में इन्होंने नायिकाभेद और थोड़ा सा रसों का भी परिचय दिया है। किंतु इसमें शृंगार की रसनायकता विलक्षण ढंग से प्रमाणित की गई है। इन्होंने संस्कृत की ही सारी सामग्री ली है । जहाँ कहीं अपनी ओर से का हौसला दिखलाया है वहीं इन्हें धोखा हुआ है । संस्कृत की पूरी सामग्री भी ठीक ठीक नहीं ली जा सकी। हाँ, 'रसिकप्रिया' को देखते हुए मानना पड़ता है कि केशव में प्रसंग-कल्पना की शक्ति थी अवश्य । काव्यभाषा से भी ये भली भांति परिचित थे । रसिकप्रिया की पद्धति पर ही यदि इनकी सारी रचनाएँ होती तो भी ये 'कठिनकाव्य के प्रेत' होने से बच जाते । सच बात तो यह है कि कुछ कारणों से इन्हें महाकाव्य लिखने का उत्साह हुआ । इस धारा में पाठक को मग्न करने के विचार से नहीं, पांडित्य-प्रदर्शन के विचार से । इसीलिए रामचंद्र चंद्रिका की रचना बेढंगी हो गई । शब्द भी इन्होंने संस्कृत के कुछ अधिक रखे और कहीं कहीं अप्रचलित तक । ये कहते भी तो थे- भाषा बोलि न जानहीं जिनके कुल भाषा-कबि भो मंदमति तेहि कुल केसवदास ||-कविप्रिया केशवदास का उद्देश्य संस्कृत की साहित्य-परंपरा की हिंदी में प्रतिष्ठा थी। यही इन्होंने किया। रचना के आधार केशव जब हिंदी में ग्रंथ प्रस्तुत करने लगे तब इनके नेत्रों में संस्कृत के ग्रंथ नाच रहे थे। इसी से इनके अधिकतर ग्रंथ संस्कृत को ही आधार बनाकर खड़े हुए। इनके प्रशस्ति-काव्यों में पांडित्य संस्कृत का अवश्य झलकता है पर सीधे संस्कृत-ग्रंथों के आधार पर उनका निर्माण नहीं है। रतनबावनी में तो वह झलक भी नहीं है । इसका कारण यही है कि वह इनकी आरंभिक रचना है । उस समय इन्होंने प्राचार्यत्व का बाना नहीं धारण किया था। जब से इन्होने प्राचार्य का आसन ग्रहण किया तब से इन्हें संस्कृत की शास्त्रीय पद्धति को हिंदी में प्रचलित करने की चिंता हुई। उसे इन्होंने जीवन के अंत तक नहीं छोड़ा। रामचंद्रचंद्रिका के देखने से जान पड़ता है, मानो ये किसी को पिंगल की पद्धति सिखला रहे हों। पुस्तक के प्रारंभ से, ही इसका आभास मिलने लगता है। एक वर्ण के छंद से क्रमशः कई वर्षों के छंदों तक वर्णन चला चलता है । आगे चलकर वर्णवृत्तों के विभिन्न रूपों का भी कम विस्तार नहीं है । केशव ने इतने अधिक और ऐसे ऐसे वर्णवृत्तों का प्रयोग किया है जो पिंगल के प्रस्तार से ही जाने जा सकते हैं; साधारणतः जिनका प्रयोग नहीं होता । 'रामचंद्रचंद्रिका' में 'प्रसन्नराघव', 'हनुमन्नाटक', 'कादंबरी' आदि कई ग्रंथों की छाया है, कितने अंश तो कोरे अनुवाद ही हैं ।