पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/८२

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तृतीय प्रभाव ८३ हैं । चाल हंस की सी है। उसके सोने की भांति (गौर) शरीर में समस्त सुगंधों की सी सुगंध है (सोने में सुगंध नहीं होती परंतु इसके शरीर में सुगंध भी है)। अलंकार-धर्मलुप्तोपमा की माला । सूचना-(१) नायिका के सौंदर्य की अधिकता वस्तु से नायक क मिलाना वस्तु व्यंग्य है । (२) केशव ने 'देवता' शब्द को संस्कृत की ही भांति स्त्रीलिंग माना है । ( ३ ) 'बासु' शब्द स्त्रीलिंग है। उसमें उकारांत रूप मिथ्यासादृश्य से और तुकांत के अनुरोध से है। अथ प्रगल्भवचना-मध्या-लक्षण-(दोहा) (८१) प्रगलभवचना जानि तिहि, बरनौं केसवदास । बचननि माँझ उराहनो, देइ दिखावै त्रास ॥३५॥ शब्दार्थ-तिहि = उसको । मांझ = में । उराहनो = उपालंभ । यथा-( सवैया ) (८२) कान्ह भलें जु भलें ढंग लागे भलें इन नैननि के रंग रागे। जानति हौं सबहीं तुम जानत आपु से केसव लालच लागे । जाहु नहीं; अहो जाहु चले, हरि जात जितै दिनहीं बनि बागे। देखि कहाँ रहे धोखें परे उबटौगे जू देखौ ब देखहु भागे ।३६॥ शब्दार्थ-भलें ढंग बागे = अच्छा ढंग पकड़ा है। नैननि के रंग रागे- नेत्रों के रंग में अनुरक्त होकर ( जिससे नेत्र मिल जाते हैं उसी के साथ प्रेम कर बैठते हैं ) । लालच लागे = लोभ में लगे हुए। दिनहीं बनि बागे = जहाँ प्रतिदिन वेशभूषा बनाकर जाते हैं। उबटोगे = चित्त से उतर जामोगे। -अभी क्या है, आगे देखिए इस करतूत से आप दिन-दिन चित्त से उतरते ही जाएंगे। भावार्थ-(नायिका नायक की अन्यस्त्री-विषयक प्रीति को लक्षित करके व्यंग्यपूर्वक उलाहना देती है) हे कान्ह, आप बड़े भले हैं और आपने अच्छा ढंग पकड़ा है। यह भी अच्छा ही किया कि नेत्रों के प्रेम में अनुरक्त हुए (अन्य नायिकाओं से नेत्र मिलाकर उन पर आसक्त हुए), मैं (खुब ) सम- झती हैं। स्वयम् लोभ में पड़े हुए पाप औरों को भी अपनी तरह (लालची) समझते हैं । जाइए, जाते क्यों नहीं। जहाँ आप प्रतिदिन • वेशभूषा बनाकर जाया करते हैं, वहीं जाइए न । आप धोखे में पड़े हुए मुझे क्या देख रहे हैं। ऐसी करतूतों से चित्त से उतर गए हैं और उतर जाइएगा। अभी क्या है, आगे इस प्रकार की करनी से अधिकाधिक चित्त से उतरते ही जाएंगे। ३५-बरनों-बरन । देइ-देखि । ३६-इन्ह-हहै, ह ह । जितै-जहीं। दिन-नित । उबटोगे जू०-उभिटे किसे देखिबे । देखो ब देखहु आगे