८४ रसिकप्रिया विवेचन-'उबटोगे' का अर्थ सरदार कवि ने भिन्न किया है। उन्होंने 'उबटबो' का अर्थ माना है-किसी बात से जो अभिमान की वृद्धि हो जाए उसके प्रदर्शन को 'उबटना' कहते हैं। 'हिंदी शब्दसागर' में दूसरा पाठ स्वी- कृत किया गया है और 'उभिटना' का अर्थ 'ठिठकना, हिचकना, भिटकना' किया गया है। प्रसंग से 'ठिठकना' ही समुचित हो सकता है । 'पाप जिसे देखने की घात लगाए रुके हैं' ऐसा अर्थ दूसरे पाठ का भासित होता है। 'शब्दसागर' में पाठ यों है-'उभिटे कैसे ! देखिबो देखहुँ आगे'। अथ प्रादुर्भूतमनोभवा-मध्या-लक्षण-( दोहा ) (८३) प्रादुर्भूतमनोभवा मध्या कहौं बखानि । तन मन भूषित सोभियै केसव कामकलानि ॥३७॥ शब्दार्थ-सोभियै = शोभित होती है । यथा-(सवैया ) (८४) आजु मैं देखी है गोपसुता इक, होइ न ऐसी अहीर की जाई । देखतही रहियै दुति देह की देखे ते और न देखी सुहाई । एक ही बंक बिलोकनि ऊपर वारै बिलोकि त्रिलोक-निकाई । केसवदास कलानिधि सो बर बूझियै काम कि मेरो कन्हाई ॥३८॥ शब्दार्थ-जाई-पुत्री। कलानिधि = चंद्रमा । देखे तें = देखने से । देखो-देखी हुई ( सुंदरियां )। बर = पति । बूझिय=जान पड़ता है । शब्दार्थ-(सखी की उक्ति सखी प्रति ) हे सखी, प्राज मैंने एक अतीव सुंदर गोपकन्या देखी है। अहीर की पुत्री (गोपिका) ऐसी सुंदर नहीं हुआ करतीं। जिसके शरीर की कांति ऐसी है कि बराबर देखते रहने की ही इच्छा होती है। अन्य ऐसी देखी हुई सुंदरियाँ उसे देख लेने पर अच्छी ही नहीं लगतीं । मैं उसकी एक ही टेढ़ी चितवन देखकर, तीनो लोकों की सुंदरता उस पर न्यौछावर कर देती हूँ। ऐसी सुंदरी का पति या तो चंद्रमा होगा या कामदेव ? ( इस पर सखी ने उत्तर दिया कि नहीं ) मेरे श्रीकृष्ण । सूचना-चौथी पंक्ति में 'कि' के स्थान पर 'की' पाठ मानकर यह अर्थ भी लगाया जाता है-'संपूर्ण काम की कलापों की निधि मेरे कन्हाई ही इसके बर जान पड़ते हैं। अलंकार-उत्तर। अथ सुरतविचित्रा मध्या-लक्षण-( दोहा ) अति विचित्रसुरता सुतौ, जाको सुरत बिचित्र । बरनत कविकुल को कठिन, सुनत सुहावै मित्र ३८। ३७- सोभिये-सोभिजै, सोहिये । १५-देखे ते-देखते। बार-बारों। बुझिय-बूझिहै । कि-की। .
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