पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/९०

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तृतीय प्रभाव सु = सो। मार = काम । भावार्थ-(सखी की उक्ति सखी से) उसकी गति मंद और मनोहारिणी है, आनंदकंद (श्रीकृष्ण ) जिसे देखकर हृदय से उल्लसित हो रहे हैं। भ्रू मंगिमा, कोमल हंसी और शरीर की सुगंध ने उन्हें भली भांति पकड़ लिया है ( वश में कर लिया है )। उसकी टेढ़ी चिवतन देखकर नंदकुमार कामदेव हो रहे हैं ( और सोच रहे हैं कि ) असल में काम के बाण तो ये ही हैं । ब्रह्मा ने भूलकर काम के बाणों को फूलों के बाण कहा है। अलंकार-अपह्नति । अथ आक्रामितनायिका-प्रौढ़ा-लक्षण-(दोहा) सो प्रोक्रामित नाइका, प्रौढ़ा कहि दै चित्त मनसा बाचा कर्मना, जिनि बस कीनो मित्त ५५॥ शब्दार्थ-दै = देकर, लगाकर । मित्त = मित्र, प्रिय, पति । यथा-( सवैया ) (१०२) तो हित गाइ बजावत नाचत बार अनेक सिँगारु बनायो। जीहू में पान को आनिबो छाइयो री तौऊ न तेरो भयो.मनभायो। भावै सो तूं करिबो करि भामिनि भाग बड़े बस तें करि पायो । कान्ह त्यों सूधे जु चाहति नाहि सु चाहति है अब पाइ लगायो ।५६। शब्दार्थ-हित = लिए। जीहू में = हृदय में भी। आन = अन्य (दूसरी स्त्रियों को ) । पाइ लगायो = पैर पड़वाना। भावार्थ-( सखी की उक्ति नायिका से ) तेरी प्रसन्नता के लिए वे ( श्रीकृष्ण ) गाकर बांसुरी बजाते हैं, नाचते हैं, और अनेक बार उन्होंने अपना शृंगार ( वेशभूषा ) भी बनाया । अब वे हृदय में भी किसी दूसरी स्त्री का ध्यान ले आना छोड़ चुके हैं। इतने पर भी तेरा मनचाहा नहीं हुआ । बड़े भाग्य से तूने उन्हें इस प्रकार वश में कर पाया है, अतः तुझे जो अच्छा लगे वह कर । कान्ह ऐसे सीधे को तू ( प्रसन्नतापूर्वक ) प्यार तो करती नहीं, अब चाहती यह है कि वे ( अपनी भूल के लिए ) तेरे पैरों पड़ें। अथ लब्धायति-प्रौढ़ा-लक्षण- दोहा ) (१०३) सो लब्धायति :जानिये, केसव प्रगट प्रमान । कानि करै पति कुन सबै, प्रभुता प्रभुहि समान १५७। ५५ कहि दै-कहिये, करिबे । जिनि-जिहि । कोनो-कोन्यौ । ५६-छाड्यो री-छाडिबो। तोऊ-तेरो तऊ न। करे-को। तें करि-है करि, चौकड़ि। त्यों-ज्यों । नाहि-माहीं सो ।