पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/९६

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७ 1 तृतीय प्रभाव १७ (दोहा) (११८) काहू सों न कहै कछू, बात अनूढा गूढ़ । सखी सहेली सों कहै, ऊढ़ा गूढ़ अगूढ़ १७२। शब्दार्थ -सखी - अंतरंग सखी सहेली - बहिरंग सखी । गूढ़ = गुप्त । अगूढ़ -प्रकट । सूचना-यह छंद पूर्ण हस्तलिखित प्रति में नहीं है । ऊड़ा वचन, यथा-( सवैया) (११९) केसवराइ को सौंहैं ककै कळू एकनि आपु में होड़ परी। एक चितै मुसकाइ इतै, उत बात कहैं बहु भाइ भरी। चारु चकोर बिलोचन भा सो चहूँ दिसि ते अँगुरी पसरी। सखि काल्हि गई हुती गोकुल हौं सबहीं मिलि द्वैज को चंद करी७३ शब्दार्थ-सौहैं = शपथ, कसम । एकनि = कुछ लोगों में। आपु में = आपस में । होड़ = लागडाँट, यहाँ वादविवाद । चहूँ दिसि तें अंगुरी पसरी = चारो ओर से गोपिकाओं ने अंगुली दिखाकर संकेत किया। भावार्थ-(ऊढ़ा का वचन बहिरंग सखी से ) मैं आज गोकुल गई थी। वहाँ मुझे देखकर कुछ स्त्रियां शपथ कर करके मेरे बारे में आपस में वाद- विवाद करने लगी .( कोई कहती थी कि यही श्रीकृष्ण की प्रेमिका है और कोई कहती थी नहीं)। कुछ स्त्रियाँ एक ओर तो मुझे देखकर मुसकाती थीं और दूसरी ओर अपनी संगिनी स्त्रियों से अत्यंत भावभरी बातें करने लगती थीं। चारो ओर से उनकी उँगलियाँ मुझे इंगित कर रही थीं। उन सबने मिलकर तो मुझे द्वितीया का चंद्रमा ही बना डाला था। (जैसे द्वितीया के चंद्रमा को देखकर दूसरों को दिखाने के लिए लोग उँगली से इंगित करते हैं उसी प्रकार वे मुझ पर उँगली उठा रही थीं)। सूचना-यह छंद भी पूर्ण हस्तलिखित प्रति में नहीं है । (दोहा) (१२०) जगनायक की नायिका, बरनी केसवदास। तिनके दरसन रस कहौं, सुनौ प्रछन्न प्रकास ७४॥ इति श्रीमन्महाराजकुमारइन्द्रजीतविरचितायां रसिकप्रियायां स्वकीया- परकीयादिभेदवर्णनं नाम तृतीयः प्रभावः ।। ७३-केसवराइ-केसवदास । काल्हि-माजु । ७४--सुनौ-सुनहु, सुनि । प्रशन्न प्रच्छन्न।