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रस-मीमांसा

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1३२ रप्तमीमांसा मनुष्य के भावों के स्वतंत्र आलंबन भी होते हैं । प्राचीन कवियों ने इन्हें पात्र के आलंबन के रूप में और श्रोता के आलंबन के रूप में, दोनों रूपों में संनिविष्ट किया है। ‘कुमारसंभव' का हिमालय-वर्णन श्रोता या पाठक के आलंबन के रूप में है। वाल्मीकि रामायण में लक्ष्मण का हेमंत के अंतर्गत पंचवटी-दृश्य-वर्णन पात्र और ओता दोनों के भाव का आलंबन हैं; वर्षा और शरत् का वर्णन पात्र (राम ) के पक्ष में तो ‘उद्दीपन' है, किंतु रूप के सूक्ष्म विश्लेषण के बल से श्रोता के लिये आलंबन हो गया है। | एक बड़े प्रबंध-काव्य में प्राकृतिक दृश्यों का श्रोता के भाव के आलंबन-रूप में वर्णन भी आवश्यक है, और यह स्वरूप उन्हें तभी प्राप्त हो सकता है जब उनका चित्रण ऐसे ब्योरे के साथ हो कि उनका बिब-ग्रहण हो, उनका पूर्ण स्वरूप पाठक या श्रोता की कल्पना में उपस्थित हो जाय । कारण, रति या तल्लीनता उत्पन्न करने के लिये प्रत्यक्ष स्वरूप का परिचय आवश्यक हैं। सारांश यह कि “उद्दीपन' होने के लिये रूप का थोड़ा-थोड़ा प्रकाश क्या, संकेत-मात्र यथेष्ट है; पर आलंबन' होने के लिये पूर्ण और स्पष्ट स्फुरण होना चाहिए। गोस्वामी तुलसीदासजी के भक्तिपूर्ण हृदय में भगवान रामचंद्र के संबंध से चित्रकूट के प्रति जो प्रेम-भाव प्रतिष्ठित था उसके कारण उन्होंने उसके रम्य स्वरूप पर अधिक दृष्टि जमाई है। नीचे दिए हुए वर्णन में यद्यपि प्रचलित रीति के अनुसार प्रत्येक वस्तु और व्यापार के साथ दृष्टांत और उत्प्रेक्षा लगी हुई है, पर निरीक्षण बहुत अच्छा है सन दिन चित्रकूट नीको लागत ; बरषा-ऋतु-प्रबेस बिसेष : गिरि देखत मन अनुरागत ।