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रस-मीमांसा



विशद वर्णन को श्रोता में रसानुभव ( भावानुभव सही ) उत्पन्न करने में पूर्ण समर्थ मानता हूँ। यह बात नहीं है कि जब तक कोई दूसरा किसी भाव का अनुभव करता हुआ और उसे शब्द और चेष्टा द्वारा प्रकाशित करता हुआ न दिखाया जाय तब तक रसानुभव हो ही नहीं। यदि ऐसा होता तो हिंदी में ‘नायिकाभेद' और 'नख-सिख' के जो सैकड़ों ग्रंथ बने हैं उन्हें कोई पढ़ता ही नहीं। नायिका-भेद में केवल श्रृंगार-रस के आलंबन का वर्णन होता है, और ‘नख-सिख' के किसी पद्य में उस आलंबन के भी किसी एक अंग मात्र का। पर ऐसे वर्णनों से रसिक लोग बराबर आनंद प्राप्त करते देखे जाते हैं। इसी प्रकार प्राकृतिक दृश्य-वर्णन मात्र को, चाहे कवि उसमें अपने हर्ष आदि का कुछ भी वर्णन न करे, हम काव्य कह सकते हैं। हिमालय-वर्णन को यदि हम कुमारसंभव से निकालकर अलग कर लें तो वह एक उत्तम काव्य कहला सकता है। मेघदूत में-विशेषकर पूर्वमेघ में - प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन ही प्रधान हैं। यक्ष की कथा निकाल देने पर भी उसका काव्यत्व नष्ट नहीं हो सकता।

ऊपर 'नख-सिख' की बात आ गई है, इसलिये मनुष्य के रूपवर्णन के संबंध में भी दो-चार बातें कह देना अप्रासंगिक न होगा। कारणं, दृश्य-चित्रण के अंतर्गत वह भी आता है। ‘नख-सिख' में केवल नायिका के रूप का वर्णन होता है। पर उसमें भी रूप-चित्रण का कोई प्रयास हम नहीं पाते, केवल विलक्षण उत्प्रेक्षाओं और उपमानों की भरमार पाते हैं। इन उपमानों के योग द्वारा अंगों की सौंदर्य-भावना से उत्पन्न सुखानुभूति में अवश्य वृद्धि होती है; पर रूप नहीं निर्दिष्ट होता। काव्य में मुख, नेत्र और अधर आदि के साथ चंद्र, कमल और