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रस-मीमांसा

१४६ रस-मीमांसा इसी प्रकार राम के आगमन की प्रतीक्षा में शवरी- । “छन भवन, छन बाहर बिलोकति पंथ श्रु पर पानि कै ।” पूर्वजनों की दीर्घ परंपरा द्वारा चली आती हुई जन्मगत वासना के अतिरिक्त जीवन में भी बहुत से संस्कार प्राप्त किए जाते हैं; जिनके कारण कुछ वस्तुओं के प्रति विशेष भाव अंतःकरण में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। बचपन से अपने घर में या बाहर हुम जिन दृश्यों को बराबर देखते आए, जिनकी चर्चा बराबर सुनते आए, उनके प्रति एक प्रकार का सुहृद्भाव मन में घर कर लेता है। हिंदुओं के बालक अपने घर में राम-कृष्ण की कथाएँ और भजन सुनते आते हैं, इससे राम-कृष्ण के चरितों से संबंध रखनेवाले स्थानों को देखने की उत्कंठा उनमें बनी रहती हैं। गोस्वामीजी के इन शब्दों में यहीं उत्कंठा भरी है- अब चित चेतु चित्रकूटहि चलु ; । भूमि बिलोक राम-पद-अंकित, बन बिलोकु रघुबर-बिहार-थलु । ऐसे स्थानों के प्रति संबंध की योजना के कारण हृदय में विशेष रूप से भावों का उदय होता है। कोई राम-भक्त जब चित्रकूट पहुँचता है तब वह वहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य पर ही मुग्ध नहीं होता, अपने इष्टदेव की मधुर भावना के योग से एक विशेष प्रकार के अनिर्वचनीय माधुर्य का भी अनुभव करता है। ऊबड़- खाबड़ पहाड़ी रास्तों में जब झाड़ियों के काँ दे उसके शरीर में चुभते हैं तब उसमें सान्निध्य का यह मधुर भाव बिना उठे नहीं रह सकता कि ये झाड़ उन्हीं प्राचीन झाड़ों के वंशज हैं जो राम, लक्ष्मण और सीता को कभी चुभे होंगे। इस भाव-योजना के कारण उन झाड़ों को वह और ही दृष्टि से देखने लगता है। यह दृष्टि औरों को नहीं प्राप्त हो सकती।