पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१७६

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भाव पहले कद्द आए हैं कि काव्य का लक्ष्य ‘भावों के उपयुक्त विषयों को सामने रखकर सृष्टि के नाना रूपों के साथ मानव- हृदय का सामंजस्य स्थापित करना है। 'भाव' ही कर्म के मूल प्रवर्तक और ‘शील के संस्थापक हैं। अतः कहा जा सकता है कि मनुष्य के जीवन की सच्ची झलक काव्य में ही दिखाई पड़ती है। सुख और दुःख की इंद्रियज वेदना के अनुसार पहले पहल राग और द्वेष आदिम प्राणियों में प्रकट हुए जिनसे दीर्घ परंपरा के अभ्यास द्वारा आगे चलकर वासनाओं और प्रवृत्तियों का सूत्रपात हुआ। रति, शोक, क्रोध, भय आदि पहले वासना के रूप में थे, पीछे भाव-रूप में आए । जात्यंतर परिणाम द्वारा । समुन्नत योनियों का विकास और मनोविज्ञानमय कोश का पूर्ण विधान हो जाने पर विविध वासनाओं की नीयँ पर रति, हास, शोक, क्रोध इत्यादि ‘भावों' की प्रतिष्ठा हुई। इंद्रियज सुख दुःख से भावगत हर्ष, शोक आदि में सबसे बड़ी विशेषता तो यह हुई कि पहले में प्रत्यय-बोध आवश्यकं नहीं था, पर दूसरे में प्रत्यय