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रस-मीमांसा

की प्रधानता हुई–पहले में ध्यान मुख्यतः सुख-दुःख पर रहता था और दूसरे में हर्ष-शोक के विषय पर रहने लगा। इंद्रियज संवेदन वेदना-प्रधान होता है, वासना प्रवृत्ति-प्रधान होती हैं। और भाव वेद्य-प्रधान ( आलंबन-प्रधान ) होता है। वासनात्मक प्रवृत्ति में 'लक्ष्य’ और ‘आलंबन’ भावना या प्रत्यय-रूप में निर्दिष्ट नहीं होते। बहुत से जीव-जंतु कोई भारी शब्द या खटका सुनते ही भाग खड़े होते हैं। मनुष्य भी कभी कभी ऐसा करता है। इस प्रकार की चेष्टा केवल इंद्रियज संवेदन पर निर्भर रहती है। प्रत्येक ‘भाव' का आदिम वासनात्मक रूप प्रायः इसी प्रकार का होता हैं और उसका विधान शरीर की भीतरी और बाहरी वनावट के अनुसार होता है। जिन क्षुद्र से क्षुद्र जीवों के शरीर में बचाव के लिये शस्त्रविधान होता है। वे बाधा पहुँचने पर आप से आप संस्कारवश जिधर से बाधा आती हुई जान पड़ती है उस ओर झपट पड़ते हैं। दुर्गंधयुक्त सड़े-गले आहार से जो विशेष प्रकार का क्षोभ घ्राणेंद्रिय और रसनेंद्रिय में होता है उसकी अनुभूति जो कभी कभी वमनेच्छा या मतली के रूप में होती है—घृणा की प्रवत्ति का मूल हैं। आगे चलकर अंतःकरण में प्रत्यय या भावना का विधान हो जाने पर ऐसे पदार्थों के दर्शन और स्पर्श क्या श्रवण मात्र से भी घृणा जाग्रत् होने लगी । इस प्रकार क्रमशः जुगुप्सा के 'भाव' का विधान हुआ। भाव-योजना के सहारे मनुष्य गंदे और मैले- कुचैले लोगों से ही नहीं बल्कि मलिन अंतःकरणवाले पापियों से भी घृणा करने लगा। ‘प्रत्यय-बोध' की ओर लक्ष्य करके ही साहित्यिकों ने 'भाव' शब्द का प्रयोग किया है जिसका अर्थ है चित्त की चेतन दशा विशेष । रति, क्रोध, भय आदि की वासनात्मक अवस्था में किसी चेतन दशा की अपेक्षा नहीं ।