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रस-मीमांसा

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२०८ रस-मीमांस। कि उनमें कारण विषयगत नहीं होता, अश्रयगत होता है। इसी से पाश्चात्य मनोविज्ञानियों ने गर्व को ममत्व' (Self-love) के अंतर्गत रखा है जो उनकी व्यवस्था के अनुसार स्थायी भाव है। हमारी प्रस्तावित व्यवस्था के अनुसार गर्व या अभिमान शीलदशा को ही प्राप्त पाया जाता है। ऐसा शायद ही होता हो कि कोई किसी एक ही व्यक्ति से समय समय पर शेखी किया करता हो।' | मन के वेग अब रहे मन के वेग। ये स्वतंत्र रूप में बहुत कम आते हैं। अधिकतर किसी 'भाव' के कारण उत्पन्न होकर उसी के अंतर्गत उद्भुत और विलीन होते हैं। जैसे, भय, आश्चर्य, हर्ष आदि के कारण आवेग, लज्जा के कारण अवहित्था, रति के कारण औत्सुक्य, शोक, दुःख आदि के कारण ग्लानि, साथ साथ उत्पन्न होती हैं। इर्ष और विषाद् के मूल में भी व्यक्त या अव्यक्त रूप में रति, शोक, जुगुप्सा आदि भाव रहते हैं क्योंकि इष्ट या प्रिय तथा अनिष्ट या अरुचिकर की प्राप्ति से ही हर्ष और विषाद का संबंध रहता हैं। | अमर्ष, त्रास, हर्ष और विषाद तो क्रोध, भय, राग और शोक के ही आलंबन-निरपेक्ष तथा लक्ष्य या संकल्प-विहीन अवयव हैं जो कभी तो प्रधान भावों के साथ संचारी रूप में आते हैं और कभी स्वतंत्र रूप में। निंदा, अपमान आदि के असहन से उत्पन्न क्षणिक क्षोभ मात्र का नाम ‘अमर्ष है-जिसके बाह्य चिह्न आँखें लाल होना, त्योरी चढ़ना, तर्जन आदि हैं। किसी १] निन्दाक्षेपापमानादेरमऽभिनिविष्ठता । | नेत्ररोगशिरःकम्पभूमङ्गो तर्जनादिकृत् ॥ - साहित्यदर्पण ३:१६६।]