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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा नहीं हो सकता । रति, क्रोध, भय इत्यादि में केवल उसी को स्वप्न में देखना संचारी होगा जिससे रति या भय हो, अथवा जिस पर क्रोध हो । शारीरिक या मानसिक क्रिया में तत्पर न होने की प्रवृत्ति जिस अवस्था में हो वह् अलसता है। यह अवस्था शारीरिक या मानसिक श्रांति के कारण होती है । यद्यपि साहित्य के ग्रंथों में शारीरिक श्रम और गर्भ आदि के कारण उत्पन्न आलस्य को संचारी कहा है पर संचारी का लक्षण उस पर ठीक ठीक नहीं घटता है। जब तक उसका किसी भाव के साथ प्रत्यक्ष सबंध न हो-सीधा लगाव न हो-तब तक वह संचारी कैसा ? रात भर जगी हुई स्त्री वैठे बैठे नँभाई लेती है तो इससे श्रोता या दर्शक को ‘रति भाव' के अनुभव में कुछ सहायता पहुँचती हुई मुझे तो नहीं मालूम पड़ती। इस प्रकार की अलसता का वर्णन उस भद्दी रुचि का परिचायक है जिसके अनुसार मध्या और प्रौढ़ा की रति का निर्लज्जता के साथ वर्णन होने लगा। प्रेम के साथ इस शारीरिक श्रम से उत्पन्न आलस्य का केवल बादरायण संबंध दिखाई पड़ता है। जिस क्रिया या व्यापार से शारीरिक श्रम ( थकावट } हुआ वह तो भाव-प्रेरित क्या भाव का अंग तक कहा जा सकता है पर इससे उस श्रम को और उस श्रम से उत्पन्न आलस्य को भाव द्वारा प्रेरित संचारी नहीं कह सकते । यदि कोई वीर तलवार चलाते चलाते थक जाय जिससे उसे आलस्य आ जाय तो क्या आलस्य वीर रस का संचारी कहा जायगा ? हास्य रस में जो निद्रा और आलस्य संचारी कहे गए १ [ आलस्यं श्रमगभरौंजांडय' पृभासितादिकृत् । -साहित्यदर्पण, ३-१५५ । ]