पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२६

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काव्य जा रहा है। उनके सब ठिकानों पर हमारा निष्ठुर अधिकार होता चला जा रहा है। वे कहाँ जायँ ? कुछ तो इमारी गुलामी करते हैं। कुछ हुमा बस्ती के भीतर या आसपास रहते हैं और छीन झपटकर अपना हक ले जाते हैं। हम उनके साथ बराबर . ऐसा ही व्यवहार करते हैं मानो उन्हें जीने का कोई अधिकार ही नहीं है। इन तथ्यों का सच्चा आभास हमें उनकी परिस्थिति से मिलता है। अतः उनमें से किसी की चेष्टाविशेष में इन तथ्यों की मार्मिक व्यंजना की प्रतीति काव्यानुभूति के अंतर्गत होगी। यदि कोई बंदर हमारे सामने से कोई खाने-पीने की चीज उठा ले जाय और किसी पेड़ के ऊपर बैठा बैठा हमें घुड़की दे, तो काव्यदृष्टि से हमें ऐसा मालूम हो सकता है कि । देते हैं। घुड़की यह अर्थ-आज-भरी हरि | जीने का हमारा अधिकार क्या न गया रद्द ! पर प्रतिषेध के प्रसार बीच तेरे, नर ! क्रीड़ामय जीवन-उपाय है हमारा यह । दानी जो हमारे रहे, वे भी दास तेरे हुए, उनकी उदारता भी सकता नहीं तू सह् । फूली फली उनकी उमंग उपकार की तू छेकता है जाता, इम जायँ कहाँ, तु ही कडू !' पेड़-पौदे, लता-गुल्म आदि भी इसी प्रकार कुछ भावों या तथ्यों की व्यंजना करते हैं जो कभी कभी कुछ गृढ़ होती है। सामान्य दृष्टि भी वर्षा की झड़ी के पीछे, उनके इर्ष और उल्लास को; ग्रीष्म के प्रचंड आतप में उनकी शिथिलता और म्लानता १ [ शुक्लजी कृत 'हृदय का मधुर भार’ से उत।]