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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा को; शिशिर के कठोर शासन में उनकी दीनता को; मधुकाल में उनके रसोन्माद, उमंग और हास को; प्रबल वात के झकोरों में उनकी विकलता को ; प्रकाश के प्रति उनकी ललक को देख सकती है। इसी प्रकार भावुकों के समक्ष वे अपनी रूपचेष्टा आदि द्वारा कुछ मार्मिक तथ्यों की भी व्यंजना करते हैं। इमारे यहाँ के पुराने अन्योक्तिकारों ने कहीं कहीं इस व्यंजना की ओर ध्यान दिया है। कहीं कहीं' का मतलब यह है कि बहुत जगह उन्होंने अपनी भावना का आरोप किया है, उनकी रूपचेष्टा या परिस्थिति से तथ्य-चयन नहीं। पर उनकी विशेष विशेष परिस्थितियों की ओर भावुकता से ध्यान देने पर बहुत से मार्मिक तथ्य सामने आते हैं। कोसों तक फैले कड़ी धूप में तपते मैदान के बीच एक अकेला वटवृक्ष दूर तक छाया फैलाए खड़ा है। हुवा के झोकों से उसकी टहनियाँ और पत्ते हिलहिलकर मानो बुला रहे हैं। हम धूप से व्याकुल होकर उसकी ओर बढ़ते हैं। देखते हैं उसकी जड़ के पास एक गाय बैठी आँख मूंदे जुगाली कर रही है। हम लोग भी उसी के पास आराम से जा बैठते हैं। इतने में एक कुत्ता जीभ बाहर निकाले हाँफता हुआ उस छाया के नीचे आता है और हममें से कोई उठकर उसे छड़ी लेकर भगाने लगता है। इस परिस्थिति को देख हममें से कोई भाबुक पुरुष उस पेड़ को इस प्रकार संबोधन करे तो कर सकता है-- काया की न छाया यह केवल तुम्हारी, द्रुम ! अंतस् के मर्म का प्रकाश यह छाया है। भरी है इसी में वह स्वर्ग-स्वप्न-धारा अभी । | जिसमें न पूरा-पूरा नर बह पाया है ।