पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२७०

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विरोध-विचार ३२५ के साथ करुणा का जो विरोध कहा गया है वह आश्रय की दृष्टि से इस विचार से कि रति भाव की भावदशा एक प्रकार की आनंद दशा है । उस दशा के भीतर पूर्णं शोक की दशा आकर बाधक हो सकती है। तात्पर्य यह कि पूर्ण रस की दशा में ही शृगार और करुण परस्पर विरोधी होंगे ‘उद्बुद्धमात्र भाव के रूप में नहीं। अविरोध के कुछ स्थल साहित्य-ग्रंथों में गिनाए गए हैं। जहाँ विरोधी भाव केवल स्मरण किया जाता है या सादृश्य मात्र दिखाने के लिये लाया जाता है वहाँ विरोध नहीं माना जाता, जैसे पुलकित तनु जाके सहित कीन्हे बिबिध बिहार । सो सुरपुर हा ! कति य मोचति लोचन-धार । | इसी प्रकार यदि रौद्र रस का वर्णन आलंकारिक चमत्कार लाने के लिये ऐसे शब्दों में किया जाय जो शृगारपक्ष में भी लग सकते हों तो रीति के अनुसार विरोध नहीं कहा जायगा । शब्द-कौतुक की ओर रुचि बढ़ जाने के कारण ऐसे स्थलों पर विरोध चाहे न कहा जाय पर रस का अच्छा संचार ऐसे वर्णनों से हो नहीं सकता। किसी रस का संचार उसी के स्पष्ट शब्दों में वर्णन करने से पूर्णतया हो सकता है। रस यदि श्रोता के हृदय पर पड़ा हुआ प्रभाव है-यदि वह भिन्न भिन्न भार्यों का भिन्न भिन्न आस्वाद रूप है तो भिन्न भाव के शब्दों में किसी भाव के कहे जाने से उसका ठीक ठीक परिपाक नहीं हो सकता। कोई सहृदय ऐसा बर्णन पसंद नहीं करेगा। यदि विरुद्ध भाव किसी दूसरे भाव या रम के अंग होकर आवे तो वे एक साथ रह सकते हैं, जैसे