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रस-मीमांसा

भाषा-शैली को अधिक व्यंजक, मार्मिक और चमत्कारपूर्ण बनाने में भी कल्पना ही काम करती है। कल्पना की सहायता यहाँ पर भाषा की लक्षणा और व्यंजना नाम की शक्तियाँ करती हैं। लक्षणा के सहारे ही कवि ऐसी भाषा का प्रयोग बेधड़क कर जाते हैं जैसी सामान्य व्यवहार में नहीं सुनाई पड़ती। ब्रजभाषा के कवियों में घनानंद इस प्रसंग में सबसे अधिक उल्लेखयोग्य हैं। भाषा को वे इतनी वशवर्तिनी समझते थे कि अपनी भावना के प्रवाह के साथ उसे जिधर चाहते थे उधर बेधड़क मोड़ते थे। कुछ उदाहरण लीजिए-

(१) अरसानि गही वह बानि कछु सरसोनि सो अनि निहोरत है ।

(२) है सो घरी भाग-उधरी अनंदघन

सुरस बरसि, लाल, देखिही इमैं हरी ।

(३) उघरो जग, छाये रहे घनश्रानंद'चातक क्यों तकिए अब तो । (४) मिलत न केहूँ भरे रावरी अमिलताई

हिये में किये बिसाल जे विछोइ-छत हैं।

(५) भूलनि चिन्दारि दोऊ है न हो इमारे ताते

बिसरनि रवि) हमैं लै बिसरति है। ( ६ ) उजरनि बसी है इमारी अँखियानि देखौ, सुबस सुदेस जहाँ भावते बसत हो । ऊपर के सद्धरणों के रेखांकित स्थलों में भाषा की मार्मिक वक्रता एक एक करके देखिए । ( १ ) बानि धीमी या शिथिल पड़ गई कहने में उतनी व्यंजकता न दिखाई पड़ी अतः कवि ने कृष्ण का आलस्य न कहकर उनकी बानि ( आदत ) का आलस्य करना कहा । ( २ ) अपने को खुले भाग्यवाद्धो न कह