पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/३१६

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प्रस्तुत रूप-विधान सद्भावश्चेद्विभावादेई योरेकस्य वा भवेत् ।। झरित्यन्यसमाक्षेपे तथा दोषो न विद्यते । -साहित्यदर्पण, तृतीय परिच्छेद, १७ | | इसके उदाहरण में जो, पद्य दिया गया है वह मालविका के अंग-प्रत्यंग का तन्मयता के साथ किया हुआ वर्णन मात्र हैं। इतने व्योरे के साथ वर्णन करने की प्रवृत्ति में ही वर्णनकर्ता के मन में सौंदर्य के प्रभाव, औत्सुक्य आदि का आभास मिलता है। इसी प्रकार अखें फाड़ फाड़कर देखने आदि अनुभावों का आक्षेप भी हो जाता है और रति भाव की भी व्यंजना हो जाती है। यहीं बात कोरे प्रकृति-वर्णन में भी समझिए । पाश्चात्य समीक्षकों ने कल्पना का ऐसा पल्ला पकड़ा कि उन्होंने कल्पित रूप-विधान को ही एक प्रकार से काव्य का लक्ष्य ठहराया । हमारे यहाँ काल्पनिक रूप-विधान साधन की कोटि में रखा गया हैं ; साध्य वस्तु रसानुभूति ही रखी गई हैं । भारतीय काव्यदृष्टि के अनुसार कवि की कल्पना भावों की प्रेरणा से ही रूप विधान में प्रवृत्त होती हैं और श्रोता या पाठक की कल्पना उस रूप-विधान का ग्रहण कर भावों को जगाती है। जो रूप-योजना कवि के मन में कार्यरूप में रहती है वही श्रोता या पाठक के अंतस में जाकर कारण-रूप हो जाती है। अतः कल्पना की वही रूप-योजना काव्य के अंतर्गत आ सकती है जो श्रोता या पाठक के १ [ दीर्घाक्ष शरदिन्दुकान्ति वदनं बाहू नतावंसयोः । संक्षिप्तं निबिडो तस्तनमुरः पाश्र्वे प्रमुष्टे इव । मध्यः पाणिमितो नितबिंब जघनं पादाक्रान्ताङ्गुली, छन्दो नर्तवितुर्वथैव मनसः श्लिष्टं तथास्या वपुः ॥ -मालविकाग्निमित्र, २-३ ।]