पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/३३४

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प्रस्तुत रूप-विधान रूपी नया रत्न निकाला। फिर क्या था ? शिक्षित समाज में व्यक्तिगत विशेषताएँ देखने-दिखाने की चाह बढ़ने लगी। | काव्यक्षेत्र में किसी ‘वाद' का प्रचार धीरे धीरे उसकी सारसत्ता को ही घर जाता है। कुछ दिनों में लोग कविता न लिखकर 'वाद' लिखने लगते हैं। कला या काव्य के क्षेत्र में 'लोक' और 'व्यक्ति' की उपर्युक्त धारणा कहाँ तक संगत हैं, इस पर थोड़ा विचार कर लेना चाहिए । लोक के बीच जहाँ बहुत सी भिन्नताएँ देखने में आती हैं वहाँ कुछ अभिन्नता भी पाई जाती है । एक मनुष्य की प्रकृति से दूसरे मनुष्य की आकृति नहीं मिलती, पर सब मनुष्यों की आकृतियों को एक साथ लें तो एक ऐसी सामान्य आकृति-भावना भी बँधती है जिसके कारण हम सबको मनुष्य कहते हैं। इसी प्रकार सबकी रुचि और प्रकृति में भिन्नता होने पर भी कुछ ऐसी अंतर्भूमियाँ हैं जहाँ पहुँचने पर अभिन्नता मिलती है। ये अंतर्भूमियाँ नर-समष्टि की रागात्मिका प्रकृति के भीतर हैं। लोक-हृदय की यही सामान्य अंतर्भूमि परख- कर इमारे यहाँ 'साधारणीकरण' सिद्धांत की प्रतिष्ठा की गई हैं। वह सामान्य अंतर्भूमि कल्पित या कृत्रिम नहीं है। काव्य-रचना . की रूढ़ि या परंपरा, सभ्यता के न्यूनाधिक विकास, जीवन व्यापार के बदलनेवाले बाहरी रूप-रंग इत्यादि पर यह स्थित नहीं है। इसकी नीर्वं गहरी है। इसका संबंध हृदय के भीतरी मूल देश से है, उसकी सामान्य वासनात्मक सत्ता से है। जिस व्यक्तिवाद का ऊपर उल्लेख हुआ है उसने स्वच्छंदता के आंदोलन ( Romantic movement ) के उत्तर-काल से बड़ा । हौ विकृत रूप धारण किया। यह व्यक्तिवाद’ यदि पूर्ण रूप से स्वीकार किया जाय तो कविता लिखना व्यर्थ ही समझिए। कविता इसीलिये लिखी जाती है कि एक की भावना सैकड़ों,