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रस-मीमांसा

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३३२ स-मीमांसा अब किस ढंग से इन सब बातों की संवेदना उत्पन्न करने के लिये शब्द विधान किया गया है, थोड़ा यह देखिए । 'सं-'से सनसनाहट अर्थात् हवा चलने की और ‘दंश' से चमड़ा फटने, पानी की ठंड और मधुमक्खी के डंक मारने की संवेदना उत्पन्न की गई है। ‘स्वर्ण' से सूर्य की किरन और मधु-मक्खियों के पीले रंग का आभास दिया गया है । गुन्' से गुनगुनाहट या गुंजार को मिलाकर मंदिरों में होनेवाले शब्द तथा समुद्र के गर्जन छीटों के 'कल कल' का आभास दिया गया है। लटके हुए घंटे की मूर्त भावना में लहरों के नीचे ऊपर फूलने का भी संकेत हैं। 'गेरू में संध्या की ललाई झलकाई गई है। फिर दूसरे नगाड़े में निकली हुई तोंद का संकेत है। रचना के प्रथम खंड में सूर्य’ और ‘समुद्र' शब्द नहीं रखे गए हैं। ‘स्वर्ण' में तपे सोने के ताप और चमक की भावना रखकर सूर्य का और 'रजत' में शीतलता और स्वच्छता की भावना रखकर जलराशि या समुद्र का संकेत फिर कर दिया गया है। इसमें 'स' के -अनुप्रास से भी सहायता ली गई हैं। पहले खंड में यह अनुप्रास ईस' से आरंभ होनेवाले 'सुर्य' और 'समुद्र’ दो लुप्त शब्दों की ओर भी इशारा करता है। कमिंग्ज साहब की समझ में यह विषय को ठीक वैसे ही सामने रखना है जैसे संवेदना उत्पन्न होती है । इसमें ऐसे शब्द नहीं हैं जो अर्थ-संबंध मिलाने के लिये या व्याकरण के अनुसार वाक्य-विन्यास के लिये लाए जाते हैं। पर संवेदना उत्पन्न करने में काम नहीं देते । उनके अनुसार यह खालिस कविता है जिसमें से भाषा, व्याकरण, तात्पर्य-बोध आदि का अनुरोध पूरा करनेवाले फालतू शब्द निकाल दिए गए हैं। । वास्तव में कमिंग्ज की इस प्रवृत्ति के मूल में क्या है ? काव्यदृष्टि की परिमिति और प्रतिभा के अनवकाश के बीच