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रस-मीमांसा

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बस-मीमांसा . इन बहुत सी ‘वाद-व्याधियों का प्रवर्तक है 'व्यक्तिवाद', जो बहुत पुराना रोग है। पुराने रोग जल्दी पीछा नहीं छोड़तेएक न एक रूप में बहुत दिनों तक बने रहते हैं। यही दुशा व्यक्तिवाद की है जिसकी नींदें भेदूवाद पर है। अब तक कवि के ‘ब्यक्तित्व के नाम पर भेद-प्रदर्शन होता था; अब उसकी कृति के व्यक्तित्व के नाम पर होने के लक्षण दिखाई दे रहे हैं। अब तक किसी कविता में उसके कवि के व्यक्तित्व को प्रधान वस्तु कहने की चाल थीं। पर अब ‘कृति' ही प्रधान वस्तु कही जाने लगी है और उसकी सत्ता कवि और श्रोता ( या पाठक ) दोनों से स्वतंत्र ठहराई जाने लगी है। कवि के 'ब्यक्तित्व का परिहार यह कहकर किया जाने लगा है कि जैसे पुत्र का व्यक्तित्व पिता के व्यक्तित्व से अलग विकसित होने के लिये छोड़ दिया जाता है उसी प्रकार किसी काव्य-रचना का व्यक्तित्व उसके कवि के व्यक्तित्व से पृथक् और स्वतंत्र होना चाहिए। इस पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यक्तिवाद' बना हुआ है, केवल उसने अपनी जगह बदल दी है । लोक से विशेषता और विचित्रता तो बनी रहने दी गई है, अंतर इतना ही पड़ा है कि अब तक उस विशेषता या विचित्रता को कवि की कहते थे, अब कृति की कहेंगे। बात सुलझते सुलझते फिर उलझन में पड़ गई क्योंकि भेदवाद का फंदा न छूट पाया। कवि और श्रोता दोनों पक्षों से 'व्यक्तित्व को अलग इटाकर उसकी प्रतिष्ठा कृति में ले जाकर कर दी गई । विलायत की साहित्य-सरकार की इस नई कारेवाई का मतलब यह हुआ कि किसी कविता का न तो कवि के हृदय के साथ सामंजस्य हो न श्रोता.के हृदय के साथ । उसकी भावव्यंजना को दोनों अपनाएँ न, तटस्थ होकर तमाशे की तरह देखें।