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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा तब जगत् या जीवन का कोई तथ्य कहाँ रहा ? इसी प्रकार भावों की सच्ची और स्वाभाविक अनुभूति (Sentimentality ) [ सेंटीमेंटलिटी ] कहकर टाली गई और कलानुभूति उससे सर्वथा भिन्न और स्वतंत्र अनुभूति बतलाई गई । मतलब यह कि जिस अनुभूति से मनुष्य हाथ पैर हिलाता है, जिस अनुभूति से शुभाशुभ कर्मों का प्रवर्तन होता है, जिस अनुभूति से मानवी प्रकृति का उत्तरोत्तर उत्कर्ष होता है वह इन कलाविदों के अनुसार काव्य के किसी उपयोग की नहीं। अब दूसरी कोटि की अनुभूति रही कौन ? वही जो कोई तमाशा, नकल, नक्काशी, वेलबूटे आदि देखने पर उत्पन्न होती है। हमारा वक्तव्य यह है कि प्रकृत काव्य का सारा स्वरूप-विधान जगत् यो जीवन की किसी वस्तु या तथ्य की ओर संकेत करता है। वही वस्तु या तथ्य कल्पना द्वारा उपस्थित काब्य-सामग्री को व्यवस्थित ढंग से संयोजित करके एक कृति का स्वरूप देता है । जब तक भीतर किसी वस्तु या तथ्य का ढांचा न होगा तब तक सुंदर से सुंदर संदर्भहीन रूप-समूह इमारत में लगनेवाले नक्काशीदार खंभों, पटरियों इत्यादि को पड़ा हुआ ढेर सा होगा। अतः काव्य में जगत् या जीवन की किसी वस्तु या तथ्य का होना, प्रस्तुत पक्ष का होना अनिवार्य है। आध्यात्मिक कविता भी वही सच्ची होगी जो अव्यक्त की ओर संकेत करनेवाले किसी तथ्य के आधार पर होगी । जब काव्य में कोई ‘प्रस्तुत' अवयव होना आवश्यक ठहरा तब उसके अतिरिक्त और जो कुछ रूप-विधान होगा वह अप्रस्तुत होगा। पर इस अग्रस्तुत अवयव का होना अनिवार्य नहीं । कोरे वस्तु-व्यापार-वर्णन अथवा स्वभावोक्ति में अप्रस्तुत-विधान नहीं रहता, पर रसात्मकता रहती है। यदि प्रस्तुत तथ्य अर्थात्