पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/३६६

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अप्रस्तुत रूप-विधान ३५३ की धार, किसो कर्म की कठिनता, खाई की चौड़ाई इत्यादि के वर्णन में केवल इस प्रकार का सादृश्य अपेक्षित रहता है जैसे पहाड़ के समान हाथी, बाल की तरह धार, पहाड़ सा काम, नदी सी खाई इत्यादि । आधिक्य या न्यूनता सूचित करने के लिये ऊहात्मक या वस्तुव्यंजनात्मक शैली का विधान कवियों में तीन प्रकार का देखा जाता है| ( १ ) ऊहा की आधारभूत वस्तु असत्य अर्थात्, कविप्रौढोक्ति-सिद्ध है। • (२) ऊहा की आधारभूत वस्तु का स्वरूप सत्य या स्वतःसंभवी है और किसी प्रकार की कल्पना नहीं की गई है। (३) ऊहा की आधारभूत वस्तु का स्वरूप तो सत्य है पर उसके हेतु की कल्पना की गई है। इनमें से प्रथम' प्रकार के उदाहरण वे हैं जिन्हें बिहारी ने विरह-ताप के वर्णन में दिया है जैसे, पड़ोसियों को जाड़े की । रात में भी बेचैन करनेवाला, या वोतल में भरे गुलाबजल को सुखा डालनेवाला ताप; दूसरे प्रकार का उदाहरण एक स्थल पर जायसी ने बहुत अच्छा दिया है, पर वह विरह-ताप के वर्णन में नहीं है, काल की दीर्घता के वर्णन में हैं। आठ वर्ष तक अलाउद्दीन चित्तौरगढ़ घेरे रहा । इस बात को एक बार तो कवि ने साधारण इतिवृत्त के रूप में कहा, पर उससे वह गोचर प्रत्यक्षीकरण न हो सका जिसका प्रयत्न काब्य करता है। आठ वर्ष के दीर्घत्व के अनुमान के लिये फिर उसने यह दृश्य आधार सामने रखा| भाइ साह अमराव जो लाए । फरे, झरे १ गढ़ नहिं पाए ।।। सच पूछिए तो वस्तु-व्यंजनात्मक या ऊहात्मक पद्धति का इसी रूप में अवलंबन सब से अधिक उपयुक्त जान पड़ता है। इसमें अनुमान का आधार सत्य या स्वतःसंभवी है । जायसी अनुमान