पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/४०४

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शब्द-शक्ति ३९१ दक्षिण के नरेशों की पराजय' । यहाँ व्यतिरेक अलंकार व्यंग्य है। अर्थात् रघु का प्रताप सूर्य के प्रताप से बढ़कर है। ( अलंकार . कल्पित अर्थात् कविप्नौढोक्तिसिद्ध है।) | स्वतःसंभवी अलंकार से स्वतःसंभवी वस्तु व्यंग्य-उस वेणुहारी को दूर से अपनी ओर झपटते देख वलराम ने भी सँभलकर पराक्रम के साथ उसे ऐसा देखा जैसे मत मातंग को केसरी देखे । स्वतःसंभवी अलंकार से कवित्रौढोक्तिसिद्ध अलंकार व्यंग्य‘रण में क्रोध से ओठ चबाते हुए जिस राजा ने शत्रुनारियों के ओठों को पति के प्रगाढ़ दंतक्षत की व्यथा से छुड़ा दिया। वह दृसरों के ओठों की रक्षा कैसे करेगा जो अपने ही ओठ चवा रहा है—वतःसंभवी विरोधालंकार। समुच्चय अलंकार व्यंग्य है-इधर ओठ चबाए, उधर शत्रु मारे गए। कविप्रौढोक्तिसिद्ध वस्तु से व्यंग्य वस्तु–युवतियों की ओर लक्ष्य रखनेवाले मुखों से युक्त, नव-पल्लव-रूप पत्र ( पंख ) वाले नए नए आम के मौरों के बाण वसंत में कामदेव तैयार करता है। यहाँ धनुर्धर काम के वाण कविप्रौढोक्तिसिद्ध मात्र हैं जिससे “कामोद्दीपन-काल’ वस्तु व्यंग्य है। १ [ आपतन्तममुं दूरादूरीकृतपराक्रमः ।। बलोऽवलोकयामास मातङ्गमिव केसरी ।। --वहीं, १७९ ] २ [ गादकान्तदशनक्षतव्यथासंकटादरिबधूजनस्य यः । श्रष्ठविद्मदलान्यमोचयनिर्देशन् युधि कुषा निजाधरम् ।। वही ।] ३ [ सज्जेहि सुरहिंमासो ण दाव अप्पेइ जुअइजणलक्खमुहे। अहिणवसहरमुहे ण्वपल्लवपत्तले अङ्गस्य सरे । —वही।]