पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/७६

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काव्य के विभाग की पूरी रमणीयता इन दोनों पक्षों के समन्वय के बीच मंगल या सौंदर्य के विकास में दिखाई पड़ती है। | भावों की प्रक्रिया की समीक्षा से पता चलता है कि उदय से अस्त तक भाव मंडल का कुछ भाग तो आश्चय की चेतना के प्रकाश ( Conscious ) में रहता है और कुछ अंतस्संज्ञा के क्षेत्र ( Subconscious region ) में छिपा रहता है। संचारी भावों के संचरण-काल में कभी कभी उनके स्थायी भाव कारण-रूप में अंतस्संज्ञा के भीतर पड़ जाते हैं। रति-भाव में सं वारी होकर आई हुई असूया या ईष्य ही को लीजिए। जिस क्षण में वह अपनी चरम सीमा पर पहुँची हुई होती है उस क्षण में आश्रय को ही रति-भाव की कोमल सत्ता का ज्ञान नहीं रहता, उस क्षण में इसके भीतर दृष्यों की ही तीक्ष्ण प्रतीति रहती हैं अौर बाहर ईष्य के ही लक्षण दिखाई देते है। जिस प्रकार किसी अाश्रय के भीतर कोई एक भाव स्थायी रहता है और अनेक भाव तथा अंतर्दशाएँ उस के संचारी के रूप में आती हैं उसी प्रकार किसी प्रबंधकाव्य के प्रधान पात्र में कोई मूल प्रेरक भाव या बीजभाव रहता है जिसकी प्रेरणा से घटना-चक्र चलता है और अनेक भावों के स्फुरण के लिये जगह निकलती चलती है। इस बीज भाव को साहित्य-मंथों में निरूपित स्थायी भाव और अंगी भावे दोनों से भिन्न समझना चाहिए। बीजभाव द्वारा स्फुरित भावों में कोमल और मधुर-कठोर और तीक्ष्ण-दोनों प्रकार के भाव रहते हैं। यदि बीजभाव को प्रकृति मंगल-विधायिनी होती है तो उसकी व्यापकता और निर्विशेषता के अनुसार सारे प्रेरित भाव तीक्ष्ण और कठोर होने पर १ [ प्रधान भाव, नाटकों के लक्षण में कथित अंगी रस ।]