पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/८८

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काव्य के विभाग है। विघ्न और बाधा की दशा में प्रेम काम करता हुआ नहीं दिखाई देता; एक ओर करुणा और दूसरी ओर क्रोध का प्रवर्तन ही देखा जाता है। जब तक शांति है, कहीं से अत्याचार आदि की बाधा नहीं उपस्थित हुई है तब तक तो माता प्रेम के बल से अपने शिशुओं का पालन करती चली चलती है। पर जब कोई बच्चों को मारता हैं, कष्ट या पीड़ा पहुँचाता है तब रक्षा अपेक्षित होती है। अत: प्रेम तो हृदय के किसी कोने में जा छिपता है; क्रोध और करुणा का उदय होता है । तात्पर्य यह कि अत्याचार द्वारा उपस्थित घोर विघ्न-बाधा की दशा में प्रेमपात्र की भी रक्षा का सीधा लगाव प्रेम से नहीं रहता, करुणा से रहता है । उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि 'आनंद' की सिद्धावस्था-शांति-सुख की अवस्थालेकर चलनेवाले कवियों का ही 'प्रेम' को बीजभाव मानना ठीक है, 'आनंद' की साधनावस्था लेकर चलने वालों का नहीं। पर आनंद की साधनावस्था या प्रयत्नपक्ष को लेकर चलने वाले योरपीय लोकमंगलबादियों का एक दल, जिसके अनुयायी हमारे यहाँ के श्री रवींद्रनाथ ठाकुर भी हैं, मनुष्य मनुष्य के बीच भातृप्रेम को ही काव्यभूमि का एकमात्र आधिकारिक भाव मानता है। इस दल के लोग साधनावस्था को लेकर भी माधुर्य और कोमलता के बाहर नहीं जाना चाहते । ये अपने हृदयंगत काव्यदेश की कोमलता और मधुरता के साथ तीक्ष्णता, कठोरता और उग्रता का सामंजस्य नहीं कर सकते । अतः काव्य के कोमल और मधुर पक्ष में ही लीन रहते हैं। ऐसे लोग लोकरक्षा की साधनावस्था के विधान में 'प्रेम' को ही बीज भाव बनाना चाहते हैं। पर साधनावस्था के वर्णन में हम कह आए हैं कि उक्त विधान में हमारे यहाँ के कवियों ने 'करुणा को ही बीजभाव रखा है। इन दोनों मतों