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रस-मीमांसा

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८४ रस-ममोसा जिस प्रेम में, जिस ध्यान में, जिस दर्शन में केवल इस अनुभव की भूख मिटती है वही स्थान पाता है साहित्य में, रूपकला में।” श्रीयुत रवींद्र के उपर्युक्त दोनों कथनों को मिलाकर विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका लक्ष्य आनंद की सिद्धावस्था या उपभोग-पक्ष को भासित करनेवाली काव्यभूमि की ओर हैं। यह कहा जा चुका है कि इस भूमि में शोभा, दीप्ति, प्राचुर्य, प्रफुल्लता, कोमलता इत्यादि द्वारा रंजन की योजना की जाती है। प्रथम उद्धरण इसी भूमि की ओर स्पष्ट संकेत करता है। उसमें सजावट की रुचि का-शोभन, दीप्त और रुचिर के चुनाव की प्रवृत्ति का पूरा आभास मिलता हैं। इस उपभोग या रंजन की जो वृद्धि आश्चर्य के मेल से होती है उसकी और दूसरा उद्धरण इशारा करता है। उस उद्धरण में शोभासौंदर्य की असीमता के आनंद का उल्लेख है जो आगे चलकर इस प्रकार बताया गया है

  • बाहर जिस अखंड आकाश में प्रह-ताराओं का मेला लगा रहता है उसकी असीमता का आनंद सिर्फ हमारे अनुभव में ही है । जीवलीला के लिये वह पाकशि बिस्कुल फालतू है। जमीन के भीतर रहनेवाला कीड़ा इस बात का सबूत है।” • विभाव-पक्ष में शोभन और दीप्त को चुनकर उनकी असामान्य योजना द्वारा अद्भुत रंजन की सामग्री तैयार करना तथा भाव-पक्ष में अनुभूति और व्यंजना का वैचित्र्य प्रदर्शित करना काव्य में कलावाद के नए और पुराने अनुयायियों का लक्ष्य रहा है। शोभा और दीप्ति की लोकोत्तर कल्पना हमारे यहाँ के भक्तों में भी भगवान् की विभूति की भावना मानी जाती है. और विलायती ढंग की ‘आध्यात्मिक कविता में भी असीम