पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/१०६

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खड़ी बोली और उसका पद्य] १०७ [ 'हरिऔध' इतनी अस्पष्ट थी कि मौलवी मुहम्मद हुसेन साहब आजाद-जैसे विशेषज्ञ ने भी अपने एक प्रसिद्ध ग्रंथ में उर्दू की उत्पत्ति ब्रजभाषा से बतलायी है। यद्यपि यह सत्य नहीं है । वास्तविक बात यह है कि उर्दू की उत्पत्ति हिन्दी की उस शाखा से हुई है जो मेरठ और दिल्ली के पास-पास बोली जाती है। यह सत्य होने पर भी कि शौरसेनी भाषा के रूपान्तर दोनों ही हैं, जितना अन्तर इन दोनों में पाया जाता है, उतना अन्तर अवधी और ब्रजभाषा में नहीं मिलता यद्यपि अवधी का आधार अर्ध-मागधी है । खड़ी बोली के नाम-करण के विषय में जो तर्क-वितर्क हो, किन्तु इस वोली का प्रचार खुसरो के पहले ही पाया जाता है जो कि १४वे शतक में हुए हैं। खुसरो की अनेक रचनाएँ खड़ी बोली में हैं । जहाँ वे अपनी प्रसिद्ध गजल "दुराय नैना बनाय बतियाँ" में शुद्ध ब्रजभाषा का प्रयोग करते हैं, वहाँ अपने निम्नलिखित पद्य में शुद्ध खड़ी बोली का भी "खा गया पी गया दे गया बुत्ता" कबीर साहब और कविवर भूषण की रचनाओं में भी खड़ी बोली का प्रयोग मिलता है। मैं उनके पद्यों को भी उदाहरण में उठाता, परन्तु स्थान का संकोच है। कथन का प्रयोजन यह कि खड़ी बोली की कविता का प्रचार सर्वथा आधुनिक नहीं है । उसका बीज उस काल से पाया जाता है, जब अपभ्रंश भाषा का स्थान हिन्दी भाषा ग्रहण कर रही थी। किन्तु यह सत्य है कि उसका व्यापक प्रचार आधुनिक है और वर्तमान हिन्दी गद्य तथा उर्दू भाषा के साहचर्य से ऐसा होना अवश्यम्भावी था । स्वर्गीय बाबू अयोध्या प्रसाद स्वयं कवि नहीं थे; परन्तु खड़ी बोली के व्यापक प्रचार में उनका बहुत कुछ हाथ है। श्रीमान् पं० श्रीधर पाठकजी ने उसके प्रचार का उद्योग ही नहीं किया, वरन् इस भाषा में उन्होंने कविता ग्रंथ भी लिखे । उनका जो द्वन्द्व इस विषय में स्वर्गीय पं० प्रतापनारायण मिश्र के साथ