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पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/१०७

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खड़ी बोली और उसका पद्य] १०८ ['हरिऔध' हुआ और जो विद्वत्तापूर्ण लेखादि इस विषय में दोनों ओर से लिखे गये वे बहुमूल्य हैं। उस समय के इस प्रकार के लेखों का यदि एक संग्रह प्रकाशित हो जाता तो वह अभूतपूर्व और बड़ा मनोरंजक होता; साथ ही उसके द्वारा नवीन जिज्ञासुओं की बहुत अधिक इष्ट-सिद्धि भी होती । किन्तु खेद है कि अभी इधर किसी की दृष्टि नहीं गयी। __ ऊपर मैं कह पाया हूँ कि खड़ी बोली के आन्दोलन का युग समाप्त हो गया है, तथापि उसकी कुत्सा करनेवाले कुछ सज्जन अभी मौजूद हैं। वह कभी-कभी आज भी खड़ी बोली की कविता पर आक्रमण करते हैं और जो जी में आता है उसके विषय में कह डालते हैं। उनका कथन है कि खड़ी बोली की कविता कर्कश भाषा की सहोदरा है-न उसमें लालित्य है, न सौंदर्य, न उसमें भाव है, न भावुकता । सरसता का उसमें नाम नहीं, माधुर्य का उसमें लेश नहीं। हृदय-स्पर्श करना उसको आता नहीं, सहृदयता उसको छूती तक नहीं, न तो उसके गगनांगण में अब तक किसी सूर का उदय हुआ, न सुधा सावी-तुलसी-मयंक का दर्शन, फिर खड़ी बोली की कविता है तो क्या ? जो कविता श्रवण-सुखद नहीं, जिसमें झंकार नहीं, जिसमें अोज नहीं, प्रसाद नहीं, वह भी कोई कविता है ? मेरा यह निवेदन है कि ब्रजभाषा की कविता से खड़ी बोली की कविता का मिलान क्या ? जिस भाषा की कविता पाँच सौ वर्ष से भी अधिक प्राचीन है, जो हिन्दी-संसार के सूर और शशि के आलोक से पालोकित है, जिसके पादाम्बुजों पर प्राचार्य केशव-जैसे बावदूक विद्वान और, बिहारी-जैसे लोकोत्तर सहृदयों ने कान्त कुसुमावलि चढ़ायी है, जिसमें अलौकिक पारिजात-पुष्प विराजमान हैं, जिसमें किसी मनमोहन का मनमोहक मुरलि-निनाद अहरह श्रवणगत होता है, जो सहस्रशः भावुक जनों के करों से लालित होकर भुवनाभिराम हो गयी, मँज गयी और सुन्दर बन गयी है, उससे इस भाषा की तुलना क्या, जिसके उत्थान को अभी पचास वर्ष भी नहीं हुए। सूर और शशि सारे सौर-मंडल में एक ही एक