पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/१०९

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खड़ी बोली और उसका पद्य] ११० ['हरिऔध' पदावली शृणु तदा जयदेव सरस्वतीम् । मेरा तो विचार है कि कादम्बरी और गीत गोविन्द में जैसा सरस और कोमल पद-विन्यास है, शायद ही संसार की किसी भाषा को वैसे शब्द-विन्यास का गौरव प्राप्त हो । क्या गीत गोविन्द के निम्नलिखित पद्यों को पढ़कर हृत्तंत्री निनादित नहीं हो उठती और कानों में सुधावर्षण होने नहीं लगता ललित लवंग लता परिशीलन कोमल मलय समीरे। मधुकर निकर करम्बित कोकिल कूजित कुञ्ज कुटीरे । फिर क्या कारण है कि संस्कृत को परुष कहा गया है। वास्तव बात यह है कि राजशेखर की प्राकृत सम्बन्धिनी संस्कृति ने उनको ऐसा कहने के लिए विवश किया । यह कहा जा सकता है कि उन्होंने प्राकृत की तुलना में संस्कृत को परुष कहा है; किन्तु अनेक विद्वान् इससे सहमत नहीं हैं। संस्कृत का तो शायद ही कोई विद्वान् इसे माने। अतएव इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता कि प्राकृत संस्कृति के कारण ही उन्होंने ऐसा कहा । वैसे ही जैसे श्रुतिकटु वर्णों टवर्ग और डवर्ग से भरी अँगरेजी को एक अँगरेज; गन, काफ, फे, जे इत्यादि कर्ण-विदीर्णकारी वर्गों से भरी अरबी को एक अरब और शीन, व, थे इत्यादि अक्षरों से युक्त फारसी को एक मुसलमान कोमल, मधुर और . सुन्दर बतलाता है। जैसे इन लोगों की अपनी-अपनी एक संस्कृति, अपनी-अपनी भाषाओं के विषय में है, उसी प्रकार खड़ी बोली के कवियों की भी एक संस्कृति खड़ी बोली के विषय में है, उसी संस्कृति से खड़ी बोली की कोमलता और मधुरता इत्यादि की जाँच होनी चाहिये, अन्यथा न्याय होना असम्भव है । मैं यह नहीं कहता कि खड़ी बोली से ब्रजभाषा मधुर और कोमल नहीं है, वरन् मैं यह कहता हूँ कि ब्रजभाषा को आदर्श मानकर जो खड़ी बोली को कर्कश बतलाते हैं, उनका आक्षेप तर्कसंगत नहीं है। ऐसे अवसरों पर उनको खड़ी बोली की संस्कृति का विचार