पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/१०८

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खड़ी बोली और उसका पद्य]
[ ‘हरिऔध’
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दृष्टिगत होते हैं। कवि-कुल-गुरु सूरदास और तुलसीदास की चर्चा ही क्या, वे लोग वे अमूल्य रत्न हैं, जो कभी-कभी हस्तगत होते हैं। ब्रजभाषा की कोमल कान्त पदावली उसका सर्वस्व है उसका सौन्दर्य, माधुर्य, लालित्य, उसकी हृदयग्राहिता, सरसता और भाव-प्रबलता मनोमुग्धकर है। यह सब स्वीकार करते हुए भी यह नहीं कहा जा सकता कि खड़ी बोली की कविता वैसी ही है जैसी कि कतिपय विपक्षी सजन उसे बतलाकर अपने हृदय के फफोले फोड़ा करते हैं। भाषा की कर्कशता और कोमलता का सम्बन्ध शब्दावली से होने पर भी उसका बहुत बड़ा सम्बन्ध संस्कृत से भी है। सरस कविताओं में ब्रजभाषा के कविगण व्वर्ग और संयुक्त वर्णों का प्रायः त्याग करते हैं— श को स कर देते हैं, ङ और ञ का लिखना अच्छा नहीं समझते, व्यंजनों के पंचम वर्ण का काम प्रायः अनुस्वार से से लेते हैं और उन शब्दों के संयुक्त वर्णों को बहुधा अकारान्त और असंयुक्त बना देते हैं, जिनका प्रयोग करना उन्हें वांछित होता है। जिस क्रिया से शब्द विकृत हो जाता हो, उसका स्वरूप बिगड़ जाता हो, वह अशुद्ध हो जाता हो, इसकी इन्हें परवा नहीं होती। ब्रजभाषा का नियम ही ऐसा है। खड़ी बोली की कविता ऐसे अधिकांश दोषों से मुक्त होती है, यह उसकी विशेष महत्ता है। प्राकृत भाषाओं में अधिकतर णकार और टकार और ऐसे ही कई एक श्रुतिकटु वर्गों का प्रयोग होने पर भी वह संस्कृत से मधुर मानी जाती है। संस्कृत और प्राकृत के प्रसिद्ध विद्वान् राजशेखर एक स्थान पर कहते हैं— “परुसासक्क अवंधा पाऊ अवंधो विहोइ सुउमारो” अर्थात् संस्कृत परुष और प्राकृत भाषा सुकुमार होती है। तो क्या संस्कृत भाषा परुष होती है ? उसमें कोमलता और सुकुमारता नहीं है? यदि यह सत्य है, तो संस्कृत साहित्य का शब्दालंकार विभाग ही व्यर्थ हो जाता है। कोमल पद-विन्यास पटु विद्वद्वर जयदेवजी के इस कथन का भी कोई मूल्य नहीं रह जाता—“मधुरकोमलकान्त