पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/१११

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खड़ी बोली और उसका पद्य ] ११२ [ 'हरिऔध' . शस्य से श्यामला भूमि में इस तरह अन्न का, वस्त्र का, जन का टोटा पड़ा। . रत्नगर्भा के लालों को परदेश में । कौड़ियों में कुली बन के जाना पड़ा। मैंने खड़ी बोली की कर्कशता के विषय में इस समय जो निवेदन किया है, उससे यह न समझना चाहिये कि मैंने अपने दोषों को देखने में आँखें बन्द कर ली हैं । खड़ी बोली की कविता में कर्कशता है, किसी-किसी कविता में आवश्यकता से अधिक कर्कशता है, लेकिन कुल कविता ही ऐसी है यह मैं नहीं मानता। जो लोग इस विषय में असंयत हैं, जो लोग अपनी कविता में संस्कृत शब्दों का भरमार करना ही अपना कर्तव्य समझते हैं, उन्हें सावधान होना चाहिये । जो कविता गद्यमय अथवा प्रोजेइक है उसे कविता नहीं कहा जा सकता । तद्भव शब्दों के स्थान पर तत्सम शब्दों का प्रयोग उचित नहीं। जितना ही कोमल शब्द-विन्यास होगा, कविता उतनी ही सुन्दर होगी। जब तक हमारा काम हिन्दी के प्रचलित शब्दों से चलता है, तब तक हमें संस्कृत शब्दों का प्रयोग न करना चाहिये । जहाँ कान हम लिख सकते हैं वहाँ कर्ण न लिखें । पद्य की शिथिलता से अवश्य बचना चाहिये, शैली भी उपेक्षणीय नहीं, परन्तु इन सबसे अधिक प्रसान्दगुण वांछनीय है । हमारी भाषा ऐसी होनी चाहिए, जिसको अधिक से अधिक लोग समझ सकें। आजकल शुद्ध शब्द प्रयोग करने का उन्माद हो गया है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि हम 'हाथ' के स्थान पर 'हस्त' 'पाँव' के स्थान पर 'पद', और 'आँख के स्थान पर 'अक्षि' लिखने लगें । ऐसी अवस्था में हिन्दी भाषा का हिन्दीपन लोप हो जायेगा और वह एक कृत्रिम भाषा बन जायेगी। हम नहीं कहते कि आप शंकर के स्थान पर संकर अथवा शंका के स्थान पर संका लिखिये किन्तु यह भी उचित नहीं है