पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/१५६

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कबीर साहब ] १५७ [ 'हरिऔध' अणिमिषि लोश्रण चित्त निरोधे पवन णिरुहइ सिरिगुरु बोहें। पवन बहइ सो निच्चल जब्बें, जोइ कालु करइ किरेतब्धे । छाया- अनिमिष लोचन चित्त निरोध श्री गुरु बोधे । पवन बहै सो निश्चल जबै जोगी काल करै का तबै । --सरहपा ४-मूल- आगम बेत्र पुराणै पंडिउ मान बहन्ति । पक्कसिरी फल अलिअ जिमि बाहेरित भ्रमयति । अर्थ-अागम वेद पुराण में पण्डित अभिमान करते हैं । पके श्री- फल के बाहर जैसे भ्रमर भ्रमण करते हैं । -करहपा* कबीर साहब स्वामी रामानन्द के चेले और वैष्णव धर्मावलम्बी बतलाये जाते हैं । उन्होंने इस बात को स्वीकार किया है, वे कहते हैं- 'कबीर गुरु बनारसी सिक्ख समुन्दर तीर' । उन्होंने वैष्णवत्व का पक्ष लेकर शाकों को खरी खोटी भी सुनायी है।—यथा मेरे संगी द्वै जणा, एक वैष्णव एक राम । वो है दाता मुक्ति का, वो सुमिरावै नाम | कबीर धनि ते सुन्दरी जिन जाया बैस्नव पूत । राम सुमिरि निरभय हुआ सब जग गया अऊत । साकत सुनहा दोनों भाई । एक निंदै एक भौंकत जाई। किन्तु क्या उनका यह भाव स्थिर रहा ? मेरा विचार है, नहीं, वह बराबर बदलता रहा। इसका प्रमाण स्वयं उनकी रचनाएँ हैं। उन्होंने गोरखनाभ की गोष्ठी नामक एक ग्रन्थ की रचना भी की है। वे शेख तक़ी के पास भी जिज्ञासु बन कर जाते थे और ऊँजी के पीर से भी

  • देखिये सरस्वती जून सन् १९३१ का पृ० ७१५, ७१७, ७१८,७१६