पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/१६७

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कविवर सूरदास ] [ 'हरिऔध आदर्श उनकी रचनाओं में दृष्टिगत होता है, वह अभूतपूर्व है। प्रेम- मार्गी सूफी सम्प्रदायवालों ने प्रेम-पंथ का अवलंबन कर जैसी रस-धारा बहायी उससे कहीं अधिक भावमय मर्मस्पर्शी और मुग्धकारिणी प्रेम की धारा सूरदासजी ने अथवा उनके उत्तराधिकारियों ने बहायी हैं। यही कारण है कि वे धाराएँ अन्त में आकर इन्हीं धाराओं में लीन हो गयीं। क्योंकि भक्तिमार्गी कृष्णावत सम्प्रदाय की धाराओं के समान व्यापकता उनको नहीं प्राप्त हो सकी। परोक्ष सत्ता सम्बन्धी कल्पनाएँ मधुर और हृदयग्राही हैं और उनमें चमत्कार भी है, किन्तु वे बोध-सुलभ नहीं। इसके प्रतिकूल वे कल्पनाएँ बहुत ही बोध-गम्य बनीं और अधिकतर सर्व साधारण को अपनी ओर आकर्षित कर सकीं जो ऐसी सत्ता के सम्बन्ध में की गयीं और जो परोक्ष-सत्ता पर अवलम्वित होने पर भी संसार में अपरोक्ष भाव से अलौकिक मूर्ति धारण कर उपस्थित हुई। भगवान श्रीकृष्ण क्या हैं ? परोक्ष सत्ता ही की ऐसी अलौकिकतामयी मूर्ति हैं जिसमें 'सत्यम् शिवम् सुन्दरम्' मूर्त होकर विराजमान है। सूफी मत के प्रेम. मार्गियों की रचनाओं में यह बात दृष्टिगत हो चुकी है कि वे किसी नायक अथवा नायिका का रूप वर्णन करते-करते उसको परोक्ष-सत्ता ही की विभूति मान लेते हैं और फिर उसके विषय में ऐसी बातें कहने लगते हैं जो विश्व की प्राधार-भूत परोक्ष सत्ता ही से सम्बन्धित होती हैं। अनेक अवस्थाओं में उनका इस प्रकार का वर्णन बोध-सुलभ नहीं होता, वरन् एक प्रकार से सन्दिग्ध और जटिल बन जाता है। किन्तु भक्ति-मार्गी महात्माओं के वर्णन में यह न्यूनता नहीं पायी जाती क्योंकि वे पहले ही से अपनी अपरोक्ष सत्ता को परोक्ष सत्ता का ही अंग-विशेष होने का संस्कार सर्व साधारण के हृदय में विविध युक्तियों से अंकित करते रहते हैं । क्या किसी सूफी प्रेम-मार्गी कवि की रचनाओं में वह अलौकित मुरली- निनाद हुआ, वह लोक-विमुग्धकर गान हुआ, उस सुर-दुर्लभ शक्ति का विकास हुआ, उस शिव-संकल्प का समुदय हुआ और उन अचिन्तनीय,