कविवर सूरदास ] १६६ [ 'हरिऔध' सत्य भावों का आविर्भाव हुआ जो महामहिम सूरदास जैसे महात्माओं की महान रचनाओं के अवलम्बन हैं ? और यही सब ऐसे प्रबलतम कारण है कि इन महापुरुषों की कृतियों का अधिकतर आदर हुआ और वे अधिकतर व्यापक बनीं । इन सफलताओं का आदिम श्रेय हिन्दी साहित्य में प्रज्ञाचक्षु सूरदासजी ही को प्राप्त है। मैं समझता हूँ, सूरदासजी का भक्ति-मार्ग और प्रेमपथ श्रीमद्भागवत के सिद्धान्तों पर अवलम्बित है और यह महाप्रभु वल्लभाचार्य के सत्संग और उनकी गुरु-दीक्षा ही का फल है। सूरसागर श्रीमद्भागवत का ही अनुवाद है, परन्तु उसमें जो विशेषताएँ हैं वे सूरदासजी की निजी सम्पत्तियाँ हैं । यह कहा जाता है कि उनकी प्रणाली 'भक्तवर' जयदेवजी के के 'गीतगोविन्द' एवं मैथिल कोकिल विद्यापति की रचनाओं से भी प्रभावित है। कुछ अंश में यह बात भी स्वीकार की जा सकती है, परन्तु सूरदासजी की सी उदात्त भक्ति-भावनाएँ इन महाकवियों की रचनाओं में कहाँ हैं ? मैं यह मानूँगा कि सूरदासजी की अधिकतर रचनाएँ शृङ्गार रस- गर्भित हैं । परन्तु उनका विप्रलम्भ शृङ्गार ही, विशेषकर हृदय-ग्राही और मार्मिक है । कारण इसका यह है कि उस पर प्रेम-मार्ग की महत्ताओं की छाप लगी हुई है। यह सत्य है कि मैथिल कोकिल विद्यापति की विप्रलम्भ शृङ्गार की रचनाएँ भी बड़ी ही भावमयी हैं, परन्तु क्या उनमें उतनी ही हृदय-वेदनात्रों की झलक है जितनी सूरदासजी की रचनाओं में ? क्या वे उतनी ही अश्रु-धारा से सिक्त, उतनी ही मानसोन्मादिनी और उतनी ही मर्मस्पर्शमी और हृदयवेधिनी हैं जितनी सूरदासजी की विरागमयी वचनावली में १ इन बातों के अतिरिक्त सूरदासजी की रचनाओं में और भी कई एक विशेषताएँ हैं। उनका बाल-लीला-वर्णन और लालभावों का चित्रण इतना सुन्दर और स्वाभाविक है कि हिन्दी-साहित्य को उसका गर्व है। कुछ लोगों की सम्मति है कि संसार के साहित्य में ऐसे अपूर्व बालभावों के चित्रण का अभाव है। मैं इसपर अपनी ठीक सम्मति प्रकट
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