पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/१७२

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कविवर सूरदास ] १७३ [ 'हरिऔध' ११-अरी मोहिं भवन भयानक लागै माई स्याम बिना। देखहिं जाइ काहि लोचन भरि नंद महरि के अँगना। लै जो गये अक्र र ताहि को ब्रज के प्रान धना। कौन सहाय करै घर अपने मेरे विघन घना। काहि उठाय गोद करि लीजै करि करि मन मगना । सूरदास मोहन दरसनु बिनु सुख सम्पति सपना । १२-खंजन नैन रूप रस माते। अतिसै चारु चपल अनियारे पल पिंजरा न न समाते । चलि चलि जात निकट स्रवननि के उलटि पटि ताटंक फंदाते । सूरदास अंजन गुन अटके नतरु अबहिं उड़ि जाते। १३-उधो अँखिया अति अनुरागी। . एक टक मग जोवति रोवति भूलेहु पलक न लागी । बिनु पावस पावस रितु आई देखत हैं बिदमान । अब धौ कहा कियौ चाहति है छाँड़हु निरगुन ज्ञान । सुनि प्रिय सखा स्यामसुन्दर के जानत सकल सुभाय। जैसे मिल सूर के स्वामी तैसी करहु उपाय । १४-नैना भये अनाथ हमारे। मदन गोपाल वहाँ ते सजनी सुनियत दूरि सिधारे। वे जलसर हम मीन बापुरी कैसे जिवहिं निनारे। हम चातकी चकोर स्याम घन बदन सुधा निधि प्यारे। मधुवन बसत आस दरसन की जोइ नैन मग हारे। सूर के स्याम करी पिय ऐसी मृतक हुते पुनि मारे। १५-सखी री स्याम सबै एकसार । मीठे बचन सुहाये बोलत अन्तर जारन हार ।