कविवर सूरदास ] १८५ [ 'हरिऔध' था कि वे कभी कभी अपनी धुन में मस्त होकर निगुण पर भी कटाक्ष कर जाते हैं । यह उनका प्रमाद नहीं है, वरन् उनकी सगुण परायणता का अनन्य भाव है। मेरा विचार है कि प्रेममार्ग में उनकी विप्रलम्भ शृंगार की रचनाएँ बड़ा महत्व रखती हैं। यह कहना कि संसार के साहित्य में उनका स्थान सर्वोच्च है, कदाचित् अच्छा न समझा जाय, परन्तु यह मानना पड़ेगा कि संसार के साहित्य की उच्चतम कृतियों में वे भी समान स्थान लाभ करने की अधिकारिणी हैं। १५- ब्रजभाषा की अधिकांश क्रियाएँ अकारान्त या प्रकारान्त हैं। उसके सर्वनामों और कारक-चिह्नों, प्रत्ययों एवं प्रातिपदिक शब्दों के प्रयोगों में भी विशेषता है जो उसको अन्य भाषाओं अथवा प्रान्तिक बोलियों से अलग करती हैं। सूरदासजी ने अपनी रचना में इनके शुद्ध प्रयोगों का बहुत अधिक ध्यान रखा है। उद्धृत पद्यों के ऐसे अधिकांश शब्दों और क्रियात्रों को स्पष्ट कर दिया गया है। उनको देखने से ज्ञात हो जायगा कि वे ब्रजभाषा पर कितना प्रभाव रखते थे। उनकी रचना में फ़ारसी अरबी के शब्द भी, सामयिक प्रभाव के कारण आये हैं। परन्तु उनको भी उन्होंने ब्रजभाषा के रंग में ढाल दिया है। इन सब विषयों पर अधिक लिखने से व्यर्थ विस्तार होगा। इसलिए मैं इस बाहुल्य से बचता हूँ। थोड़ा सा उनपर विचार दृष्टि डालने से ही अधिकांश बातें स्पष्ट हो जायेंगी। पहले लिख आया हूँ कि सूरदासजी ही व्रजभाषा के प्रधान आचार्य हैं । वास्तव में बात यह है कि उन्होंने ब्रजभाषा के लिए जो सिद्धान्त साहित्यिक दृष्टि से बनाये और जो मार्ग-प्रदर्शन किया अाज तक उसी को अवलम्बन करके प्रत्येक ब्रजभाषा का कवि साहित्य-क्षेत्र में अग्रसर होता है। उनके समय से जितने कवि और महाकवि ब्रजभाषा के हुए वे सब उन्हीं की प्रवर्तित-प्रणाली के अनुग हैं। उन्हीं का पदानु- सरण उस काल से अब तक कवि-समूह करता आया है। उनके समय
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