पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/१८३

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कविवर सूरदास ] १८४ [ 'हरिऔध' अनुभव करनेवाले को किसी अलौकिक संसार में पहुँचा देती हैं। फिर भी सूरदास की इस प्रकार की रचनाएँ पढ़ कर यह भावना उत्पन्न होने लगती है कि क्या ऐसी ही सरसता और मोहकता उन सब धाराओं में भी होगी ? प्रेम-लीलाओं के चित्रण में जैसी निपुणता देखी जाती है, वैसी प्रवीणता उनकी अन्य रचनाओं में नहीं पायी जाती। उनका विप्रलम्भ शृङ्गार-सम्बन्धी वर्णन बड़ा ही उदात्त है। उनमें मन के सुकुमार भावों का जैसा अंकन है, जैसी उनमें हृदय को द्रवित करनेवाली विभूतियाँ हैं । यदि वे अन्य कहीं होंगी तो इतनी ही होंगी। वे किसी सच्चे प्रेम-पथिक की ही अनुभवनीय हैं, अन्य की नहीं। कोई रहस्यवादी बनता है, और अपरोक्ष सत्ता को लेकर निगुण में सगुण की कल्पना करता है । परन्तु कल्पना कल्पना ही है, उसमें मानसिक वृत्तियों का वह सच्चा विकास कहाँ जो वास्तव में किसी सगुण से सम्बन्ध रखता है ? जो अान्तरिक अानन्द' हम पृथ्वी, जल, अनि वायु, आकाश के अनुभूत विभावों से प्राप्त कर सकते हैं, पंचतन्मात्राओं से नहीं, क्योंकि उनमें सांसारिकता है, इनमें नहीं। हम विचारों को दौड़ा लें, पर विचार किसी आधार पर अवलम्बित हो सकते हैं। सांसारिकों को सांसारिकता ही सुलभ हो सकती है। संसार से परे क्या है ? उसकी कल्पना वह भले ही कर ले, किन्तु उसका मन उन्हीं में रम सकता है जो सांसारिक विषय हैं। यही कारण है कि जो निगुणवादी बनने का दावा करते हैं वे जब अानन्द- मय जीवन की कामना करते हैं तो सगुण भावों का ही आश्रय लेते हैं। सूरदासजी इसके मर्मज्ञ थे। इसलिए उन्होंने सगुण भावों को लेकर ऐसे मोती पिरोये जिनकी बहुमूल्यता चिन्तनीय है, कथ- नीय नहीं। उन्होंने अपने लक्ष्य को प्रकाश में रखा है, अन्धकार में नहीं। इसीलिए उनकी रचनाएँ अन्य प्रेम-मार्गौ कवियों से सरसता और मोहकता में अधिकतर स्वाभाविक हैं । उनका यह रंग इतना गहरा